दो कविताएँ - पुराना कुआ और माँ के लिए चिट्ठी -अजय महाला संयुक्त आयकर आयुक्त की खुबसूरत कृतियाँ
पुराना कुआं
यही है वह कुआं
जिसके बाजू में
एक दूसरे के हाथ पकड़ कर
कभी हम खड़े हुए थे -
और उसकी छलकती शीतल जल
मान लो
हमारा प्रेम ही था ।
सूरज की किरणें
प्रतिबिंबित होकर
चमकाते थे
प्यार से गिले और तरबतर
उसी कुआं की चिकनी
भीतरी दीवारों को
उसके बाजू में खड़े होकर
हम देखते थे
एक दूसरे से अनजान
प्रतिबिंब को
और प्यार करने लगे थे
हमारी ही गुनगुनाती संगीत को
जो कुएं के अंदर से
प्रतिध्वनित होकर
सतह तक आता था
रास्ता चलते चलते
कभी मनमुटाव हो गया
और कुएं की
कोई दोष नहीं होते हुए भी
गुस्से में ढेला भर मिट्टी
कुएं के भीतर
फेंक दिया हमने
हार मान लेने की स्वभाव
हम दोनों में से
किसी एक का भी
था ही नहीं ।
उलटे जवाब में
तुमने दो टोकनी मिट्टी
और डाल दी ।
एक, दो, चार और आठ करते
दोनों मिलकर
बहुत जल्द सपाट लिया
उस सुंदर कुएं को
और जिसके अंदर
कितनी आसानी से खो गया
बीते हुए दिनों की गहराई
और तमाम शीतलता
जीवन तो ऐसे हो गया
जानो कुएं की जरूरत नहीं थी
हम में से
किसी एक को भी
देखते ही
एक जमाना गुज़र गया
एक दूसरे के हाथ पकड़ कर
उस कुएं की बाजू में
और कभी खड़े नहीं हुए थे
हम दोनों
अभी सिर्फ
जो अलग-अलग जाकर
देख आते हैं
अपनी गहराई खो चुकी
दुर्दशा ग्रस्त उस कुएं को !
माँ के लिये चिट्ठी
माँ !
यहाँ सब कुछ खैरियत है
मैं नहीं रो रहा हूँ
सब कुछ मिल जाता है यहाँ
मुझे आसानी से
कतार में खड़ा होना
नहीं पड़ता मुझे
सावन की झड़ी
या अमाबास का अँधेरा
मजबूरन जाना नहीं पड़ता मुझे बेवक्त
कहीँ बेसहारासा खड़ा होना नहीं पड़ता
कोई अपहुँच अनजान मुल्क में
सुनना नहीं पड़ता
मालिक़ का डांट
अकेला नहीं हूँ मैं
चारों तरफ मेरे कितने नयी दोस्त
यहाँ न है बीड़ी या सिगरेट
ना कोई नक़ली तांत्रिक या बाबा
मन को वशीभूत करने वाली जादूगरनी
यान वाहन का कोई खतरा नहीं
रास्ता चलते वक़्त
डामर से उतर कर चलता हूँ
देर रात तक कहीँ रुकता नहीं मैं
जल्दी वापस आ जाता हूँ घर
यहाँ तूफ़ान नहीं
न कोई बाढ़
अंजान बिमारी से मरनेवाले समाचार में
मेरा शहर का नाम नहीं
मां
मैं जिया हूँ तो जिया हूँ सिर्फ
बारम्बार उलटे ख़याल
आनेवाले
तेरी मन में
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