साधना के सुमेरु पर्वत थे आचार्य शांतिसागर जी- अन्तर्मना आचार्य प्रसन्न सागर
साधना के सुमेरु पर्वत थे आचार्य शांतिसागर जी- अन्तर्मना आचार्य प्रसन्न सागर कोडरमा/औरगाबाद / मुरादनगर -जैन मुनि अन्तर्मना आचार्य प्रसन्न सागर पुष्पगिरी तीर्थ प्रणेता आचार्य पुष्पदंत सागर जी महाराज के उपवन सुगंधीत पुष्प भारत गौरव अंतर्मना आचार्य प्रसन्न सागर जी
गुरुदेव एवम पियुष सागर जी गुरदेव का 2020 का चातुर्मास ऐतिहासिक नगरी मुरादनगर हो रहा है इस अवसर पर अंतर्मना प्रसन्न श्री गुरुदेव ने लिखित स्वरूप कहाँ की जो कुछ जीव का उपकार करने वाला होता है वह सब शरीर का अपकार करने वाला होता है। जो कुछ शरीर का हित करने वाला होता है वह सब आत्मा का अहित करने वाला होता है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्ती सागर जी ने अपने बाल्यकाल में ईश्वरूपदेश का अध्यन नही किया हो परन्तु घर्मनिष्ठ पिता भीम गोड़ा पाटिल व धर्म परायण माता सत्यवती से प्राप्त संस्कारो के बल पर आचार्य पूज्य पाद की उपरोक्त उक्तियोवन अवस्था के पूर्व ही उनके ह्रदय में समा गई थी। यह बात अन्तर्मना आचार्य प्रसन्न सागर जी महाराज ने चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जीकी 65 वी पुण्यतिथि पर भक्तो से कही, उन्होने बनाया की गुरुदेव अठारह वर्ष की अवस्था मे बिस्तर का त्याग करके पाटे पर सोने की प्रक्रिया पच्चीस वर्ष में अवस्था मे जुते-चप्पल का त्याग ,बत्तीस वर्ष की अवस्था मे धी तेल का त्याग कर दिन में एक बार शुद्ध सादा आहार व बाद में एक दिन उपावस एक दिन आहार प्रक्रिया यह सब शरीर के प्रति अना शक्ति का परिचायक था।
आचार्य शान्ती सागर जी महाराज ने नो वर्ष की अल्पवय में छः वर्ष की कन्या के साथ उनका विवाह हो गया था। परन्तु कुछ समय बाद ही उस कन्या का मरण हो गया। फिर दूसरे विवाह के लिए तैयार नही हुए। कम उम्र में ही मुनि अवस्था मे जाने की लो लगा ली परन्तु मातापिता का समाधि मरण होने के इकतालीस वर्ष की उम्र में मुनि बन ग्रह त्याग किया।
उन्होंने मुनि देवेन्द्र कीर्ति मुनिराज से मुनि दीक्षा लेने का निवेदन किया मुनिराज ने उनकी निर्दोष चर्या उत्कृष्ट साधना को देख कर उन्हें क्रमशः क्षुल्लक ओर ऐलक की दीक्षा दी तथा साधना की अडिगता उन्हें मुनि बनने की रोक न पाई। 1920 में मुनि देवेन्द्र कीर्ति जी ने उनकी कठोर तप साधना देखकर जिन दीक्षा दी दी। मुनि देवेन्द्र कीर्ति जी अपने शिष्य मुनि शान्ती सागर जी की उत्कृष्ट साधना को देखकर उन्हें पांच वर्ष बाद आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांति सागर जी ने 36 वर्ष के मुनि जीवन मे 9938 उपवास किये थे। उनकी साधना के लिए बस इतना ही कहुगा की वे साधना के सुमेरु पर्वत थे।
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