हाथरस प्रकरण : बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओं बोलना कितना आसान !

हाथरस प्रकरण : बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओं बोलना कितना आसान !



            डां. तेजसिंह किराड़ 


(वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)


कोरोना काल में ही हमारी शिक्षा नीति में बहुत बड़ा बदलाव किया गया। इसके पहले बेटी पढ़ाओं बेटी बचाओं का खूब ढोल पीटा गया। यहां तक कि कई पार्टियों के नेताओं ने इसे एक सिम्बल बनाकर अपनी छवि चमकानें में कोई कसर नहीं छोड़ी। वालीवुड के कई दिग्गजों ने भी इस विषय पर बहुत खुलकर बोला भी। देश के हजारों एनजीओ ने भी इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया किन्तु आज हाथरस की घटना पर ये सब कुछ भी बोलने से बच रहे हैं। मानों जैसे इनके मुंह पर ताला जड़ दिया गया हो! अवसरवादी ऐसे व्यक्तियों के दोहरें चरित्र का समाज ने मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए। आखिर ये सब क्यों चुप हैं ?


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अत्याचार,शोषण,व्यभिचार,भ्रष्टाचार,अनाचार,पापाचार,बलात्कार और अमानवीय जघन्य दुष्यकृत्यों की घटनाओं से देश की जनता एक बहुत बड़े गहरें सदमें हैं। यूएन महासभा में कहने को तो हम दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का शंखनाद करते हैं। स्थाई सदस्यता के लिए विश्व के राजनीति के मंचों पर हम भारी दबाव बनाते हैं। किन्तु आज देश में गरीब,असहाय,दलित,कमजोर और मजदूर वर्ग की ही नहीं मध्यम और सभ्य घरानों की बेटियां भी अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करने लगी हैं। आखिर समाज ऐसी विकृत सोच और अमानवीय दुष्यप्रवित्त घटनाओं पर स्थानीय प्रशासन और राज्य की सरकारों की पकड़ कमजोर क्यों बन चुकी हैं? देश में तेजी से बढ़ रही ऐसी घटनाओं ने सामाजिक संबंधों के ताने बानों की एकजुटता को तार -तार कर दिया हैं। हाथरस की घटना अनुगूंज दुनिया के कई देशों में चैनलों पर देखी जा रही हैं। निर्भया कांड से ना तो अपराधियों ने कोई सबक लिया और ना ही राज्य और केन्द्र सरकार ने कानूनों में संशोधन करके सीधे दोषी अपराधियों को एक माह में फांसी का फरमान का कानून बनाया। आज समाज में छिपें बैठे ऐसे दरिन्दों को कानून का कोई खौफ ना होने से बलात्कार और हत्या जैसी जघन्य घटनाओं का ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा हैं। देश की बेटियों और उनके परिजनों की मानसिक स्थितियों को देश की न्यायपालिका ने भी गंभीरता से समझना होगा। बेटी पढ़ाओं और बेटी बचाओं केवल बोलने के लिए या चुनावों में अपना वोट बैंक निश्चित करने का एक जरिया बनता जा रहा हैं। हमें किसी का मामा बनने कि जरूरत नहीं हैं हमें एक सख्त कानून की जरूरत हैं जो गरीब या आम जनता की बेटियों के भविष्य को एक मुकम्मल सुरक्षा,जीवनपयोगी शिक्षा और विवाहोपरांत पवित्र संबंधों वाला सुंदर सामाजिक परिवेश उन्हें प्रदान कर सके। आज बेटियों को दहेज की नहीं सुरक्षा कि जरूरत हैं। हाथरस की घटना के हर एक पहलुओं का मूल्यांकन करें तो स्पष्ट होता हैं दबंगों की गुलाम बन चुका स्थानीय प्रशासन बेटियों की सुरक्षा करने में टीवी चैनलों पर निकम्मा साबित हो रहा हैं। देश के बड़े होदों का निर्माण करने वाली आईएस और आईपीएस प्रशिक्षण संस्थाओं में भी प्रशिक्षण के पाठ्‌यक्रमों को भी समाज की जरूरत के हिसाब से बदलनें की मांग उठाई जाना चाहिए। एक संवेदनशील मामले में घोर लापरवाहियों का कारण बना यह मामला कोरोना काल में अपने घरों में बैठे शालाओं के बच्चों के मन,मस्तिष्क पर गहरा दुष्प्रभाव डाल रहा हैं। सुशांत का मुद्दा विगत सात माह से एक सीरियल की तरह लगातार चैनलों पर चल रहा हैं। देश के इतिहास में सुशांत रिया की मिस्ट्री ने टीवी चैनलों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। अब लोग किसी मुहिम के तहत सड़कों पर उतर कर आन्दोलन को उतारू हो चुके हैं। वहीं निर्भया प्रकरण में वकीलों और न्यायालयों की नौटंकी सबने देखी हैं। तेलंगाना की एक डाक्टर बेटी की घटना में बलात्कार और हत्या के चारों आरोपियों का एनकाउंटर में मारा जाना भी देश दुनिया ने देखा हैं। हाथरस में जो हुआ वह समाज में इन तमाम पहलुओं पर एक करारा तमाचा हैं। पोस्टमार्टन के बाद भी शव को परिजनों को ना देना और पुलिस द्वारा पेट्रोल डालकर जला देना हमारें संवैधानिक मौलिक अधिकारों का सरासर उल्लंघन हैं। उप्र सरकार के ही मुलाजिम बड़े बड़े अधिकारियों की सोच इतनी कठोर कैसे हो सकती हैं कि एक पीड़ित परिवार को ही अपराधी बनाकर चारों तरफ से पुलिस ने घेरकर किलाबंदी कर दी! उप्र में चुनाव सिर पर हैं। बिहार के चुनावी परिणामों का बहुत बड़ा गंभीर प्रभाव उप्र के चुनाव पर सीधे पढ़ने वाला हैं। बिहार में लालू यादव वंशियों का प्रभाव तेजी से जमीनी स्तर पर बढ़ने सो नीतिश सरकार की नींद उड़ी हुई हैं। वहीं उप्र में सियासती समीकरण भी सपा के पक्ष में बढ़ते नजर आ रहे हैं। केवल कुछ गुंडों या अपराध जगत के आकांओं को पकड़ने या जेल में डालने से समाज से अपराध का सफाया नहीं माना जाता हैं। सभी प्रकार के समाचार सूत्रों कि माने तो सीएम योगी को ही उनके अधिकारियों द्वारा अंधेरें में रखा जाना लोकतंत्र की सरासर हत्या के समान हैं। बेटियों को पैदल और नदी नालें पार करके पढ़ाने वाले परिजनों के आंशुओं का मोल देश की राज्य सरकारों ने हर हाल में समझना होगा। केवल बेटी पढ़ाओं और बेटी बचाओं के खालीमाली नारे लगाने से देश की बेटियां सुरक्षित नहीं हो जाती हैं। या फाईटर जेट विमानों पर बेटियों को नियुक्ति देने से देश की तमाम बेटियां सुरक्षित नहीं हो जाती हैं। चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने से बेटियां आज भी समाज में सुरक्षित नहीं हो पा रही हैं। आखिर क्यों संसद में बेटियों और महिलाओं के सुरक्षा मामलों को लेकर ऊंची आवाज नहीं उठाई जाती हैं? एक महिला सांसद ने सुशांत प्रकरण पर सांसद रवि किशन पर तो बहुत कुछ बोला किन्तु हाथरस मामले पर चुप्पी साथ रखी हैं क्यों?कौन बनेगा करोड़पति में महानायक भी बेटियों को लेकर उनके मान,सम्मान,शिक्षा रोजगार और सुरक्षा की बड़ी बड़ी बातें करते हैं किन्तु हाथरस के मामलें पर वालावुड का मुंह सीला पड़ा हुआ हैं।ऐसे दोहरें चरित्र के कारण आज समाज में सामाजिक,सांस्कृतिक,शैक्षणिक,राजनैतिक,आर्थिक और धार्मिक संबंधों का बहुरंगी विविधता वाला भारतीय समाज शर्मशार होकर टूटता और बिखरता जा रहा हैं। देश में बेटियों की सुरक्षा और शिक्षा को किसी राजनैतिक चश्में से बिल्कुल नहीं देखा जाना चाहिए। देश में बेटियों पर हो रहे अत्याचारों पर कठोर नकेल कसने के लिए न्यायपालिका ने स्वयं पीड़ित परिजनों का पक्ष लेकर, प्रशासन और राज्य सरकारों को कठोर फटकार लगाकर प्रकरण को न्याय प्रविष्ठ कर आरोपियों को सीधे बिना कानूनी दांवपेंच करनै वाले वकीलों के एक सप्ताह में फैसला कर समाज में न्याय का विश्वास सुदृढ़ करने की जरूरत निर्मित करना होगी। तब कहीं हम सब गर्व से कह सकेगें कि, बेटियां सुरक्षित हैं और न्याय उनका संरक्षित हैं।


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