वैचारिक टकराव के चलते बढ़ती दूरी और टलती नियुक्तियां

 वैचारिक टकराव के चलते बढ़ती दूरी और टलती नियुक्तियां 


                    प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़

             (वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)

 प्रेम और सत्ता में कभी भी कोई बात छिपी नहीं रहती हैं। आपसी कटड़वाहट हो या वैचारिक मतभेद सब प्रकट हो ही जाता हैं। मप्र में उपचुनाव के बाद भाजपा को मिली बड़ी सफलता को भाजपा स्वयं अपनी उपलब्धि मानकर सिंधिया समर्थकों को कई मायनों में एहसास करवा रही हैं कि सत्ता में रहने के लिए दबाव की राजनीति नहीं हाईकमान की राजनीति  से सबकाम होते हैं। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस में यही अंतर महाराज सिंधिया और उनके समर्थक आजतक नहीं समझ पा रहे हैं। भले वे भाजपा के बैनर को थाम चुके हैं किन्तु भाजपा के नीति सिद्धांतों से अभी भलीभांती ठीक से परिचित नहीं होने का दर्द रोज सहन कर रहे हैं।

सिंधिया और उनके तमाम समर्थकों की बैचेनी मंत्रिमंडल में जगह पाने के लिए दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही हैं।किन्तु सीएम चौहान ने हाल फिलहाल  साफ कर दिया हैं कि देश में किसान आंदोलन के चलते राज्य में मंत्रिमंडल विस्तार और निगम मंडलों में नियुक्तियों को करने का अभी सही समय नहीं हैं। सूत्रों की खबर माने तो सिंधिया और उनके सैकड़ों नेताओं का हूजूम चालीस गाड़ियों के काफिलें के साथ सीएम हाउस शिवराज चौहान से मिलने गये थे। खिचड़ी क्या पकी यह खबर देर सबेर बाहर आने ही वाली हैं।   सिंधिया और उनके जीते हुए विधायक    राज्य के मंत्रिमंडल में जल्दी से जगह पीने और ज्यादा विभाग पाने की दबाव वाली राजनीति अपनाने में जुटें हुए हैं। सीएम चौहान एक स्पष्टवादी और राजनीति में चाणक्य नीति के नेता माने जाते हैं। वे एकसाथ पार्टी संगठन,गठन और मंत्रिमंडल को बराबर संतुलित महत्व देने में विश्वास रखने वाले राष्ट्रीय स्तर के नेता समझे जाते हैं। सिंधिया को जुम्मे जुम्में भाजपा का बैनर थामे अभी कोई  ज्यादा समय नहीं हुआ हैं ऐसे में सिंधिया के सभी भाजपाई बन चुकें नेताओं को पहले भाजपा पार्टी के संगठन की परिभाषाओं को किताबों में ढूंढ कर रटना होगा। जैसा कि उपचुनाव के दौरान तुलसी सिलावट ने जुबान फिलने पर कांग्रेस को वोट देने की बात कह डाली थी। संभवत सीएम भी यही चाहते हैं कि मंत्रिमंडल और निगम मंडलों में नियुक्तियों के पहले हर कोई सिंधिया समर्थक नेता भाजपा के नीति सिद्धांतों को गंभीरता से समझ लें। यह सच हैं कि कांग्रेस में हर कोई छोटा या बड़ा नेता मंत्री या कार्यकर्ता दबाव वाली राजनीति में सबसे माहिर समझे जाते हैं किन्तु भाजपा में पार्टी वंशवादी नहीं होने से नीति और सिद्धांतों के अनुरूप आम व्यक्ति और नेताओं को महत्व प्रदान किया जता हैं ना कि दबव को महत्व दिया जाता हैं। भाजपा में इतिहास गवाह हैं कि जो भी दबाव बनाकर आगे बढ़ने की कोशिश में लगा उसे पार्टी ने या तो बाहर का रास्ता दिखाया है या उन्हें हांसिए पर रखकर बोलवचन के लिए छोड़ दिया गया हैं। भाजपा में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनके चेहरों पर से सबकुछ पढ़ा जा सकता हैं। मप्र में नम्बर के नेता बनने की एक स्पर्धा आरंभ हो चुकी हैं। प बंगाल में चुनाव के पूर्व मचे हाहाकार से प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय का कद और महत्व तेजी से बढ़ता जा रहा हैं। ठंड के इस सीजन में  राजनीति के गलियारों में अब चारों तरफ एक ही चर्चा की ठंडी हवा चल रही हैं कि मप्र में कैलाश विजयवर्गीय प बंगाल के चुनाव के बाद कुछ बड़ी उथल -पुथल करने का मानस बना चुके हैं। क्योंकि हाल फिलहाल चौहान और सिंधिया गुट में वैचारिक टकराव और कई भ्रामक दृष्टिकोण उत्पन्न हो चुके हैं ऐसे में मप्र में उपचुनाव के बाद की राजनीति का परिदृश्य भी काफी कुछ बदल चुका हैं। विजयवर्गीय मौके का राजनीति लाभ उठाने वाले नेता माने जाते रहे हैं। वे वक्त और व्यक्ति का महत्व बेहत्तर समझतें हैं। जेड प्लस की सुरक्षा और बुलेट प्रूफ की गाड़ी ने उनकी हैसीयत को चार चांद लग चुके हैं। नरोत्तम मिश्रा दूसरे नम्बर के नेता बनने में ऐडी चोटी का जोर लगा रहे हैं किन्तु उनके समर्थकों को राजनीति की नवीन परिभाषाओं की बारिकी को सींखना होगा। मप्र में किसान आंदोलन पर और किसानों के संगठन नेताओं को लेकर मप्र के कृषि मंत्री कमल पटेल ने एक गलत टिप्पणी करके किसानों और उनसे जुड़ें नेताओं  को सरासर अपमानित कर दिया हैं कमल पटेल ने कहा कि आजकल संगठन कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं  जिनका कोई वजूद नहीं हैं वे भी किसानों को वेवजह गुमराह कर रहे हैं। पटेल की इस टिप्पणी से राज्य की कई अन्य पार्टी नेताओं में और किसान संगठनों से जुड़े लोगों में काफी नाराजी बन चुकी हैं। एक तरफ  भोपाल में किसान सम्मेलन से किसानों की सहानुभूति जुटाई जा रही हैं तो दूसरी तरफ शिवराज के मंत्री बड़बोले वचनों से गर्दिश में आ चुके हैं। वैसे भी राज्य के किसान कमल पटेल की वैचारिकता से काफी पहले से ही परेशान हैं। किसानों के आंदोलन पर सिंधिया और उनके मंत्रियों की चुप्पी ने भी एक बड़ा भ्रम पैदा कर दिया हैं। क्योंकि ना तो सिंधिया अभी तक केन्द्र में कोई मंत्री बन सके हैं और ना ही राज्य में उनके नेताओं को कोई महत्व दिया जा रहा हैं ऐसे में राज्य में तुलसी सिलावट को उपमुख्यमंत्री बनाएं जाने कि कयावद भी खटाई में पड़ती नजर आ रही हैं। बिहार चुनाव के बाद वहां उप्र का मंत्रिमंडल माडल लागू करके दो - दो उपमुख्यमंत्री बनाएं जा चुके हैं। मप्र में  सिंधिया अपने कट्टर समर्थक सिलावट को उपमुख्यमंत्री बना पाते है या नहीं? यह सबसे बड़ा दिलचस्प नजारा मंत्रिमंडल विस्तार के समय देखा जा सकता हैं। राज्य में निगम मंडलों में कई पदों कि नियुक्तियां पेंडिग पड़ी हुई  हैं। ऐसे में मलाईदार मंडलों की रेवडियों पर भी खींचतान साफ दिखाई देने वाली हैं। कुल मिलाकर प बंगाल के चुनाव और राज्य में कई नेताओं का बढ़ता राजनैतिक वजन सीएम सरकार के लिए कई चुनौतियों को जन्म देने की चर्चा राजनीतिक दिग्गजों के मुंह से आरंभ हो चुकी हैं। विजयवर्गीय ने केन्द्र में जो पकड़ बनाई हैं उससे संघ भी बहुत खुशी इजहार कर चुका है। यह बात भी जगजाहीर हैं कि संघ और पार्टी आलाकमान जिन पर मेहरबान हो जाता हैं उनका पार्टी में कद तेजी से बढ़ने लग जाता हैं। सिंधिया भले ही राज्य में सरकार बनवाने में कामयाब हो चुके हैं परन्तु उनको लेकर यह भी चर्चा चालू हैं कि केन्द्र सरकार में अभी उन्हें सबका साथ,सबका विकास और सबका विश्वास वाली परिभाषा से गुजरना शेष हैं।

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