क्या किसी जातक की जन्मकुंडली में द्विविवाह का योग  देखा जा सकता है? समझें जन्म कुंडली में एक से अधिक विवाह का योग को---पंडित दयानंद शास्त्री


कई लोगो के जीवन में सम्बन्ध या विवाह का योग सिर्फ एक ही नहीं होता बल्कि एक से अधिक और कई बार अनेक होता है . कई बार ऐसा देखने में आता है कि व्यक्ति एक सम्बन्ध टूटने के बाद दुसरे सम्बन्ध में पड़ता है परन्तु कई बार तो ऐसी स्थिति होती है कि व्यक्ति एक साथ ही एक से अधिक रिश्तों में रहता है ।


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की विवाह और संबंधों का कारक ग्रह बृहस्पति होता है। विवाह संबंधों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए कुंडली में बृहस्पति की स्थिति देखी जाती है। उसके साथ अन्य ग्रहों की युति से स्त्री या पुरुष संख्या का पता लगाया जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र में एक योग बताया गया है "पुनर्विवाह योग" यानि फिर से विवाह। कई व्यक्ति ऐसे होते है जिनका पहला विवाह सफल नहीं हो पाता और उन्हें पुन: विवाह करना पड़ता है। कुछ लोग दो से अधिक शादियां भी करते हैं। जन्म कुंडली का सप्तम भाव या स्थान जीवन साथी से संबंधित होता है। स्त्री हो या पुरुष दोनों का विवाह संबंधी विचार इसी स्थान से होता है।


सप्तम स्थान जीवनसाथी का भाव होता है। इस स्थान में यदि बृहस्पति और बुध साथ में बैठे हों तो व्यक्ति की एक स्त्री होती है। यदि सप्तम में मंगल या सूर्य हो तो भी एक स्त्री होती है।


वैदिक ज्योतिष के अनुसार मालुम किया जा सकता है यदि किसी व्यक्ति के जीवन में दो शादी के योग होते हैं। जब लग्न का स्वामी और सप्तम स्थान का स्वामी दोनों यदि एक साथ प्रथम या फिर सप्तम स्थान में हों तो व्यक्ति की दो पत्नियां होती हैं। 
ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने उदाहरण समझाते हुुुये बताया कि यदि लग्न सिंह हो तो उसका स्वामी सूर्य हुआ और सप्तम स्थान कुंभ का स्वामी शनि हुआ। यदि सूर्य और शनि दोनों प्रथम या सप्तम स्थान में हों तो दो स्त्रियों से विवाह होता है। या स्त्री की कुंडली है तो दो विवाह होते हैं। ऐसा समझना चाहिए।


सप्त स्थान के स्वामी के साथ मंगल, राहु, केतु, शनि छठे, आठवें या 12वें भाव में हो तो एक स्त्री की मृत्यु के बाद व्यक्ति दूसरा विवाह करता है।


यदि सप्तम या अष्टम स्थान में पापग्रह शनि, राहु, केतु, सूर्य हो और मंगल 12वें घर में बैठा हो तो व्यक्ति के दो विवाह होते हैं।


लग्न, सप्तम स्थान और चंद्रलग्न इन तीनों में द्विस्वभाव राशि यानी मिथुन, कन्या, धनु या मीन हो तो जातक के दो विवाह होते हैं।


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार जब लग्न का स्वामी 12वें घर में और द्वितीय घर का स्वामी मंगल, शनि, राहु, केतु के साथ कहीं भी हो तथा सप्तम स्थान में कोई पापग्रह बैठा हो तो जातक की दो स्त्रियां होती हैं। स्त्री की कुंडली में यह फल पुरुष के रूप में लेना चाहिए।


शुक्र पापग्रह के साथ हो तो जातक के दो विवाह होते हैं।
धन स्थान यानी दूसरे भाव में अनेक पापग्रह हों और द्वितीस भाव का स्वामी भी पापग्रहों से घिरा हो तो तीन विवाह होते हैं।


जानिए ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी से की क्यों होती हैं ऐसी स्थितियां ? 


कौन से ग्रह और उनकी स्थितियां हैं इसके लिए जिम्मेदार आइये देखते हैं –


1. यदि सप्तमेश अपनी नीच की राशी में हो तो जातक की दो पत्नियां/सम्बन्ध होती हैं.


2. यदि सप्तमेश , पाप ग्रह के साथ किसी पाप ग्रह की राशी में हो और जन्मांग या नवांश का सप्तम भाव शनि या बुध की राशी में हो तो दो विवाह की संभावनाएं होती हैं.


3. यदि मंगल और शुक्र सप्तम भाव में हो या शनि सप्तम भाव में हो और लग्नेश अष्टम भाव में हो तो जातक के तीन विवाह या सम्बन्ध संभव हैं.


4. यदि सप्तमेश सबल हो , शुक्र द्विस्वभाव राशि में हो जिसका अधिपति ग्रह उच्च का हो तो व्यक्ति की एक से अधिक पत्नियां या बहुत से रिश्ते होंगे .


5. सप्तमेश उच्च का हो या वक्री हो अथवा शुक्र लग्न भाव में सबल एवं स्थिर हो तो जातक की कई पत्नियां/सम्बन्ध होंगी.


6. यदि सप्तम भाव में पाप ग्रह हो, द्वितीयेश पाप ग्रह के साथ हो और लग्नेश अष्टम भाव में हो तो जातक के दो विवाह होंगे.


7. यदि शुक्र जन्मांग या नवांश में किसी पाप ग्रह की युति में अपनी नीच की राशि में हो तो व्यक्ति के दो विवाह निश्चित हैं.


8. यदि सप्तम भाव और द्वितीय भाव में पाप ग्रह हों और इनके भावेश निर्बल हों तो जातक पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह कर लेता है.


9. यदि सप्तम भाव और अष्टम भाव में पाप ग्रह हों मंगल द्वादश भाव में हो और सप्तमेश की सप्तम भाव पर दृष्टि न हो तो जातक की पहली पत्नी की मृत्यु हो जाती है और वह दूसरा विवाह करता है.


10. यदि सप्तमेश और एकादशेश एक ही राशि में हों अथवा एक दुसरे पर परस्पर दृष्टि रखते हों या एक दूसरे से पंचम नवम स्थान में हों तो जातक के कई विवाह होते हैं.


11. यदि सप्तमेश चतुर्थ भाव में हो और नवमेश सप्तम भाव में हो अथवा सप्तमेश और एकादशेश एक दुसरे से केंद्र में हो तो जातक के एक से अधिक विवाह होंगे.



12. यदि मंगल सप्तम भाव में हो और उसपर शनि की दृष्टि हो तो दूसरा विवाह अवश्य होता है।


13. सप्तमेश उच्च राशि का होकर केंद्र या त्रिकोण में हो और उस दशमेश देखता हो ,तो एकाधिक शादियों की संभावना होती है।


14. सप्तमेश लग्न में हो तो जितने ग्रह सप्तम भाव में होंगे उतनी ही शादियां जातक जातीका की होने का आसार हैं।


15. यदि सप्तमेश व द्वितीयेश शुक्र के साथ त्रिक भाव में हों और जातक जितने पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो उतने ही पार्टनर का वियोग होता है।


16. लग्नेश लग्न में तथा अष्टमेश लग्न या सप्तम में हो तो जातक का दूसरा विवाह होता है।


17. लग्नेश वा धनेश छठे भाव में हो तथा सप्तम में पपग्रह हो तो दूसरा विवाह हो।


18. सप्तमेश शत्रु या नीच राशि में शुभ ग्रह के साथ हो तथा सप्तम पाप युत हो तो दूसरा विवाह हो।


19. अगर नवांश में गुरु धनु या मीन राशि में हो तो दूसरी शादी अवश्य होगी ।


20. यदि द्वितीय भाव और सप्तम भाव में पाप ग्रह हों तथा सप्तमेश के ऊपर पाप ग्रह की दृष्टि हो तो पति/पत्नी की मृत्यु के कारण जातक को तीन या उससे भी अधिक बार विवाह करना पड़ सकता है ।


इनके अतिरिक्त ऐसे अनेकों योग वैदिक शास्त्रों में हैं जिसके आधार पर दूसरे विवाह का विचार होता है ।



2.जानिए की शादी तय होकर भी क्यों टूट जाती है-


(1)- यदि कुंडली में सातवें घर का स्वामी सप्तमांश कुंडली में किसी भी नीच ग्रह के साथ अशुभ भाव में बैठा हो तो शादी तय नहीं हो पाती है.


(2)- यदि दूसरे भाव का स्वामी अकेला सातवें घर में हो तथा शनि पांचवें अथवा दशम भाव में वक्री अथवा नीच राशि का हो तो शादी तय होकर भी टूट जाती है.


(3)- यदि जन्म समय में श्रवण नक्षत्र हो तथा कुंडली में कही भी मंगल एवं शनि का योग हो तो शादी तय होकर भी टूट जाती है.


(4) यदि मूल नक्षत्र में जन्म हो तथा गुरु सिंह राशि में हो तो भी शादी तय होकर टूट जाती है. किन्तु गुरु को वर्गोत्तम नहीं होना चाहिए.


(5) यदि जन्म नक्षत्र से सातवें, बारहवें, सत्रहवें, बाईसवें या सत्ताईसवें नक्षत्र में सूर्य हो तो भी विवाह तय होकर टूट जाता है.


3.तलाक क्यों हो जाता है-


(1)- यदि कुंडली मांगलीक होगी तो विवाह होकर भी तलाक हो जाता है. किन्तु ध्यान रहे किसी भी हालत में सप्तमेश को वर्गोत्तम नहीं होना चाहिए.


(2)- दूसरे भाव का स्वामी यदि नीचस्थ लग्नेश के साथ मंगल अथवा शनि से देखा जाता होगा तो तलाक हो जाएगा. किन्तु मंगल अथवा शनि को लग्नेश अथवा द्वितीयेश नहीं होना चाहिए.


(3) यदि जन्म कुंडली का सप्तमेश सप्तमांश कुंडली का अष्टमेश हो अथवा जन्म कुंडली का अष्टमेश सप्तमांश कुंडली का लग्नेश हो एवं दोनों कुंडली में लग्नेश एवं सप्तमेश अपने से आठवें घर के स्वामी से देखे जाते हो तो तलाक निश्चित होगा.


(4)- यदि पत्नी का जन्म नक्षत्र ध्रुव संज्ञक हो एवं पति का चर संज्ञक तो तलाक हो जाता है. किन्तु किसी का भी मृदु संज्ञक नक्षत्र नहीं होना चाहिए.


(5)- यदि अकेला राहू सातवें भाव में तथा अकेला शनि पांचवें भाव में बैठा हो तो तलाक हो जाता है. किन्तु ऐसी अवस्था में शनि को लग्नेश नहीं होना चाहिए. या लग्न में उच्च का गुरु नहीं होना चाहिए.


4.पति पत्नी का चरित्र-


(1)- यदि कुंडली में बारहवें शुक्र तथा तीसरे उच्च का चन्द्रमा हो तो चरित्र भ्रष्ट होता है.


(2)- यदि सातवें मंगल तथा शुक्र एवं पांचवें शनि हो तो चरित्र दोष होता है.


(3)- नवमेश नीच तथा लग्नेश छठे भाव में राहू युक्त हो तो निश्चित ही चरित्र दोष होता है.


(4)- आर्द्रा, विशाखा, शतभिषा अथवा भरनी नक्षत्र का जन्म हो तथा मंगल एवं शुक्र दोनों ही कन्या राशि में हो तो अवश्य ही पतित चरित्र होता है.


(5)- कन्या लग्न में लग्नेश यदि लग्न में ही हो तो पंच महापुरुष योग बनता है. किन्तु यदि इस बुध के साथ शुक्र एवं शनि हो तो नपुंसकत्व होता है.


(6)- यदि सातवें राहू हो तथा कर्क अथवा कुम्भ राशि का मंगल लग्न में हो तो या लग्न में शनि-मंगल एवं सातवें नीच का कोई भी ग्रह हो तो पति एवं पत्नी दोनों ही एक दूसरे को धोखा देने वाले होते है.


5.विवाह नही होगा अगर-


यदि सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है।


यदि सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है।


यदि सप्तमेश नीच राशि में है।


यदि सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है।


जब चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।


जब शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।


जब शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।


जब शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो।


जब कभी शुक्र, बुध, शनि ये तीनो ही नीच हों।


जब पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।


जब सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।


6 शुभ ग्रह हमेशा शुभ नहीं होते(पति पत्नी में अलगाव के ज्योतिषीय कारण )—


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताया कि
ज्योतिषीय नियम है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल का ह्वास और शुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल की समृद्धि होती है। जैसे, मानसागरी में वर्णन है कि केन्द्र भावगत बृहस्पति हजारों दोषों का नाशक होता है। किन्तु, विडंबना यह है कि सप्तम भावगत बृहस्पति जैसा शुभ ग्रह जो स्त्रियों के सौभाग्य और विवाह का कारक है, वैवाहिक सुख के लिए दूषित सिद्ध हुआ हैं।


यद्यपि बृहस्पति बुद्धि, ज्ञान और अध्यात्म से परिपूर्ण एक अति शुभ और पवित्र ग्रह है, मगर कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति वैवाहिक जीवन के सुखों का हंता है। सप्तम भावगत बृहस्पति की दृष्टि लग्न पर होने से जातक सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान, स्वाभिमानी और कर्मठ तथा अनेक प्रगतिशील गुणों से युक्त होता है, किन्तु ‘स्थान हानि करे जीवा’ उक्ति के अनुसार यह यौन उदासीनता के रूप में सप्तम भाव से संबन्धित सुखों की हानि करता है। प्राय: शनि को विलंबकारी माना जाता है, मगर स्त्रियों की कुंडली के सप्तम भावगत बृहस्पति से विवाह में विलंब ही नहीं होता, बल्कि विवाह की संभावना ही न्यून होती है।


यदि विवाह हो जाये तो पति-पत्नी को मानसिक और दैहिक सुख का ऐसा अभाव होता है, जो उनके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ जाता हैं। वैद्यनाथ ने जातक पारिजात, अध्याय 14, श्लोक 17 में लिखा है, ‘नीचे गुरौ मदनगे सति नष्ट दारौ’ अर्थात् सप्तम भावगत नीच राशिस्थ बृहस्पति से जातक की स्त्री मर जाती है। कर्क लग्न की कुंडलियों में सप्तम भाव गत बृहस्पति की नीच राशि मकर होती है। व्यवहारिक रूप से उपयरुक्त कथन केवल कर्क लग्न वालों के लिए ही नहीं है, बल्कि कुंडली के सप्तम भाव अधिष्ठित किसी भी राशि में बृहस्पति हो, उससे वैवाहिक सुख अल्प ही होते हैं।


एक नियम यह भी है कि किसी भाव के स्वामी की अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर स्थिति से उस भाव के फलों का नाश होता है। सप्तम से षष्ठ स्थान पर द्वादश भाव- भोग का स्थान और सप्तम से अष्टम द्वितीय भाव- धन, विद्या और परिवार तथा उनसे प्राप्त सुखों का स्थान है। यद्यपि इन भावों में पाप ग्रह अवांछनीय हैं, किन्तु सप्तमेश के रूप में शुभ ग्रह भी चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र किसी भी राशि में हों, वैवाहिक सुख हेतु अवांछनीय हैं। चंद्रमा से न्यूनतम और शुक्र से अधिकतम वैवाहिक दुख होते हैं। दांपत्य जीवन कलह से दुखी पाया गया, जिन्हें तलाक के बाद द्वितीय विवाह से सुखी जीवन मिला।


क्या किसी की जन्मकुंडली में द्विविवाह का योग कैसे देखा जा सकता है?


समझें जन्म कुंडली में एक से अधिक विवाह का योग को---


कई लोगो के जीवन में सम्बन्ध या विवाह का योग सिर्फ एक ही नहीं होता बल्कि एक से अधिक और कई बार अनेक होता है . कई बार ऐसा देखने में आता है कि व्यक्ति एक सम्बन्ध टूटने के बाद दुसरे सम्बन्ध में पड़ता है परन्तु कई बार तो ऐसी स्थिति होती है कि व्यक्ति एक साथ ही एक से अधिक रिश्तों में रहता है ।


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की विवाह और संबंधों का कारक ग्रह बृहस्पति होता है। विवाह संबंधों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए कुंडली में बृहस्पति की स्थिति देखी जाती है। उसके साथ अन्य ग्रहों की युति से स्त्री या पुरुष संख्या का पता लगाया जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र में एक योग बताया गया है "पुनर्विवाह योग" यानि फिर से विवाह। कई व्यक्ति ऐसे होते है जिनका पहला विवाह सफल नहीं हो पाता और उन्हें पुन: विवाह करना पड़ता है। कुछ लोग दो से अधिक शादियां भी करते हैं। जन्म कुंडली का सप्तम भाव या स्थान जीवन साथी से संबंधित होता है। स्त्री हो या पुरुष दोनों का विवाह संबंधी विचार इसी स्थान से होता है।


सप्तम स्थान जीवनसाथी का भाव होता है। इस स्थान में यदि बृहस्पति और बुध साथ में बैठे हों तो व्यक्ति की एक स्त्री होती है। यदि सप्तम में मंगल या सूर्य हो तो भी एक स्त्री होती है।


वैदिक ज्योतिष के अनुसार मालुम किया जा सकता है यदि किसी व्यक्ति के जीवन में दो शादी के योग होते हैं। जब लग्न का स्वामी और सप्तम स्थान का स्वामी दोनों यदि एक साथ प्रथम या फिर सप्तम स्थान में हों तो व्यक्ति की दो पत्नियां होती हैं। 


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने उदाहरण समझाते हुुुये बताया कि यदि लग्न सिंह हो तो उसका स्वामी सूर्य हुआ और सप्तम स्थान कुंभ का स्वामी शनि हुआ। यदि सूर्य और शनि दोनों प्रथम या सप्तम स्थान में हों तो दो स्त्रियों से विवाह होता है। या स्त्री की कुंडली है तो दो विवाह होते हैं। ऐसा समझना चाहिए।


सप्त स्थान के स्वामी के साथ मंगल, राहु, केतु, शनि छठे, आठवें या 12वें भाव में हो तो एक स्त्री की मृत्यु के बाद व्यक्ति दूसरा विवाह करता है।


यदि सप्तम या अष्टम स्थान में पापग्रह शनि, राहु, केतु, सूर्य हो और मंगल 12वें घर में बैठा हो तो व्यक्ति के दो विवाह होते हैं।


लग्न, सप्तम स्थान और चंद्रलग्न इन तीनों में द्विस्वभाव राशि यानी मिथुन, कन्या, धनु या मीन हो तो जातक के दो विवाह होते हैं।


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार जब लग्न का स्वामी 12वें घर में और द्वितीय घर का स्वामी मंगल, शनि, राहु, केतु के साथ कहीं भी हो तथा सप्तम स्थान में कोई पापग्रह बैठा हो तो जातक की दो स्त्रियां होती हैं। स्त्री की कुंडली में यह फल पुरुष के रूप में लेना चाहिए।


शुक्र पापग्रह के साथ हो तो जातक के दो विवाह होते हैं।
धन स्थान यानी दूसरे भाव में अनेक पापग्रह हों और द्वितीस भाव का स्वामी भी पापग्रहों से घिरा हो तो तीन विवाह होते हैं।


जानिए ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी से की क्यों होती हैं ऐसी स्थितियां ? 


कौन से ग्रह और उनकी स्थितियां हैं इसके लिए जिम्मेदार आइये देखते हैं –


1. यदि सप्तमेश अपनी नीच की राशी में हो तो जातक की दो पत्नियां/सम्बन्ध होती हैं.


2. यदि सप्तमेश , पाप ग्रह के साथ किसी पाप ग्रह की राशी में हो और जन्मांग या नवांश का सप्तम भाव शनि या बुध की राशी में हो तो दो विवाह की संभावनाएं होती हैं.


3. यदि मंगल और शुक्र सप्तम भाव में हो या शनि सप्तम भाव में हो और लग्नेश अष्टम भाव में हो तो जातक के तीन विवाह या सम्बन्ध संभव हैं.


4. यदि सप्तमेश सबल हो , शुक्र द्विस्वभाव राशि में हो जिसका अधिपति ग्रह उच्च का हो तो व्यक्ति की एक से अधिक पत्नियां या बहुत से रिश्ते होंगे .


5. सप्तमेश उच्च का हो या वक्री हो अथवा शुक्र लग्न भाव में सबल एवं स्थिर हो तो जातक की कई पत्नियां/सम्बन्ध होंगी.


6. यदि सप्तम भाव में पाप ग्रह हो, द्वितीयेश पाप ग्रह के साथ हो और लग्नेश अष्टम भाव में हो तो जातक के दो विवाह होंगे.


7. यदि शुक्र जन्मांग या नवांश में किसी पाप ग्रह की युति में अपनी नीच की राशि में हो तो व्यक्ति के दो विवाह निश्चित हैं.


8. यदि सप्तम भाव और द्वितीय भाव में पाप ग्रह हों और इनके भावेश निर्बल हों तो जातक पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह कर लेता है.


9. यदि सप्तम भाव और अष्टम भाव में पाप ग्रह हों मंगल द्वादश भाव में हो और सप्तमेश की सप्तम भाव पर दृष्टि न हो तो जातक की पहली पत्नी की मृत्यु हो जाती है और वह दूसरा विवाह करता है.


10. यदि सप्तमेश और एकादशेश एक ही राशि में हों अथवा एक दुसरे पर परस्पर दृष्टि रखते हों या एक दूसरे से पंचम नवम स्थान में हों तो जातक के कई विवाह होते हैं.


11. यदि सप्तमेश चतुर्थ भाव में हो और नवमेश सप्तम भाव में हो अथवा सप्तमेश और एकादशेश एक दुसरे से केंद्र में हो तो जातक के एक से अधिक विवाह होंगे.



12. यदि मंगल सप्तम भाव में हो और उसपर शनि की दृष्टि हो तो दूसरा विवाह अवश्य होता है।


13. सप्तमेश उच्च राशि का होकर केंद्र या त्रिकोण में हो और उस दशमेश देखता हो ,तो एकाधिक शादियों की संभावना होती है।


14. सप्तमेश लग्न में हो तो जितने ग्रह सप्तम भाव में होंगे उतनी ही शादियां जातक जातीका की होने का आसार हैं।


15. यदि सप्तमेश व द्वितीयेश शुक्र के साथ त्रिक भाव में हों और जातक जितने पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो उतने ही पार्टनर का वियोग होता है।


16. लग्नेश लग्न में तथा अष्टमेश लग्न या सप्तम में हो तो जातक का दूसरा विवाह होता है।


17. लग्नेश वा धनेश छठे भाव में हो तथा सप्तम में पपग्रह हो तो दूसरा विवाह हो।


18. सप्तमेश शत्रु या नीच राशि में शुभ ग्रह के साथ हो तथा सप्तम पाप युत हो तो दूसरा विवाह हो।


19. अगर नवांश में गुरु धनु या मीन राशि में हो तो दूसरी शादी अवश्य होगी ।


20. यदि द्वितीय भाव और सप्तम भाव में पाप ग्रह हों तथा सप्तमेश के ऊपर पाप ग्रह की दृष्टि हो तो पति/पत्नी की मृत्यु के कारण जातक को तीन या उससे भी अधिक बार विवाह करना पड़ सकता है ।


इनके अतिरिक्त ऐसे अनेकों योग वैदिक शास्त्रों में हैं जिसके आधार पर दूसरे विवाह का विचार होता है ।



2.जानिए की शादी तय होकर भी क्यों टूट जाती है-


(1)- यदि कुंडली में सातवें घर का स्वामी सप्तमांश कुंडली में किसी भी नीच ग्रह के साथ अशुभ भाव में बैठा हो तो शादी तय नहीं हो पाती है.


(2)- यदि दूसरे भाव का स्वामी अकेला सातवें घर में हो तथा शनि पांचवें अथवा दशम भाव में वक्री अथवा नीच राशि का हो तो शादी तय होकर भी टूट जाती है.


(3)- यदि जन्म समय में श्रवण नक्षत्र हो तथा कुंडली में कही भी मंगल एवं शनि का योग हो तो शादी तय होकर भी टूट जाती है.


(4) यदि मूल नक्षत्र में जन्म हो तथा गुरु सिंह राशि में हो तो भी शादी तय होकर टूट जाती है. किन्तु गुरु को वर्गोत्तम नहीं होना चाहिए.


(5) यदि जन्म नक्षत्र से सातवें, बारहवें, सत्रहवें, बाईसवें या सत्ताईसवें नक्षत्र में सूर्य हो तो भी विवाह तय होकर टूट जाता है.


3.समझें तलाक क्यों हो जाता है-


(1)- यदि कुंडली मांगलीक होगी तो विवाह होकर भी तलाक हो जाता है. किन्तु ध्यान रहे किसी भी हालत में सप्तमेश को वर्गोत्तम नहीं होना चाहिए.


(2)- दूसरे भाव का स्वामी यदि नीचस्थ लग्नेश के साथ मंगल अथवा शनि से देखा जाता होगा तो तलाक हो जाएगा. किन्तु मंगल अथवा शनि को लग्नेश अथवा द्वितीयेश नहीं होना चाहिए.


(3) यदि जन्म कुंडली का सप्तमेश सप्तमांश कुंडली का अष्टमेश हो अथवा जन्म कुंडली का अष्टमेश सप्तमांश कुंडली का लग्नेश हो एवं दोनों कुंडली में लग्नेश एवं सप्तमेश अपने से आठवें घर के स्वामी से देखे जाते हो तो तलाक निश्चित होगा.


(4)- यदि पत्नी का जन्म नक्षत्र ध्रुव संज्ञक हो एवं पति का चर संज्ञक तो तलाक हो जाता है. किन्तु किसी का भी मृदु संज्ञक नक्षत्र नहीं होना चाहिए.


(5)- यदि अकेला राहू सातवें भाव में तथा अकेला शनि पांचवें भाव में बैठा हो तो तलाक हो जाता है. किन्तु ऐसी अवस्था में शनि को लग्नेश नहीं होना चाहिए. या लग्न में उच्च का गुरु नहीं होना चाहिए.


4.पति पत्नी का चरित्र-


(1)- यदि कुंडली में बारहवें शुक्र तथा तीसरे उच्च का चन्द्रमा हो तो चरित्र भ्रष्ट होता है.


(2)- यदि सातवें मंगल तथा शुक्र एवं पांचवें शनि हो तो चरित्र दोष होता है.


(3)- नवमेश नीच तथा लग्नेश छठे भाव में राहू युक्त हो तो निश्चित ही चरित्र दोष होता है.


(4)- आर्द्रा, विशाखा, शतभिषा अथवा भरनी नक्षत्र का जन्म हो तथा मंगल एवं शुक्र दोनों ही कन्या राशि में हो तो अवश्य ही पतित चरित्र होता है.


(5)- कन्या लग्न में लग्नेश यदि लग्न में ही हो तो पंच महापुरुष योग बनता है. किन्तु यदि इस बुध के साथ शुक्र एवं शनि हो तो नपुंसकत्व होता है.


(6)- यदि सातवें राहू हो तथा कर्क अथवा कुम्भ राशि का मंगल लग्न में हो तो या लग्न में शनि-मंगल एवं सातवें नीच का कोई भी ग्रह हो तो पति एवं पत्नी दोनों ही एक दूसरे को धोखा देने वाले होते है.


5.विवाह नही होगा अगर-


यदि सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है।


यदि सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है।


यदि सप्तमेश नीच राशि में है।


यदि सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है।


जब चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।


जब शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।


जब शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।


जब शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो।


जब कभी शुक्र, बुध, शनि ये तीनो ही नीच हों।


जब पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।


जब सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।


6 जानिए शुभ ग्रह हमेशा शुभ क्यों नहीं होते
(पति पत्नी में अलगाव के ज्योतिषीय कारण )—


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताया कि
ज्योतिषीय नियम है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल का ह्वास और शुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल की समृद्धि होती है। 


जैसे, मानसागरी में वर्णन है कि केन्द्र भावगत बृहस्पति हजारों दोषों का नाशक होता है। किन्तु, विडंबना यह है कि सप्तम भावगत बृहस्पति जैसा शुभ ग्रह जो स्त्रियों के सौभाग्य और विवाह का कारक है, वैवाहिक सुख के लिए दूषित सिद्ध हुआ हैं।


यद्यपि बृहस्पति बुद्धि, ज्ञान और अध्यात्म से परिपूर्ण एक अति शुभ और पवित्र ग्रह है, मगर कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति वैवाहिक जीवन के सुखों का हंता है। सप्तम भावगत बृहस्पति की दृष्टि लग्न पर होने से जातक सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान, स्वाभिमानी और कर्मठ तथा अनेक प्रगतिशील गुणों से युक्त होता है, किन्तु ‘स्थान हानि करे जीवा’ उक्ति के अनुसार यह यौन उदासीनता के रूप में सप्तम भाव से संबन्धित सुखों की हानि करता है। प्राय: शनि को विलंबकारी माना जाता है, मगर स्त्रियों की कुंडली के सप्तम भावगत बृहस्पति से विवाह में विलंब ही नहीं होता, बल्कि विवाह की संभावना ही न्यून होती है।


यदि विवाह हो जाये तो पति-पत्नी को मानसिक और दैहिक सुख का ऐसा अभाव होता है, जो उनके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ जाता हैं। वैद्यनाथ ने जातक पारिजात, अध्याय 14, श्लोक 17 में लिखा है, ‘नीचे गुरौ मदनगे सति नष्ट दारौ’ अर्थात् सप्तम भावगत नीच राशिस्थ बृहस्पति से जातक की स्त्री मर जाती है। कर्क लग्न की कुंडलियों में सप्तम भाव गत बृहस्पति की नीच राशि मकर होती है। व्यवहारिक रूप से उपयरुक्त कथन केवल कर्क लग्न वालों के लिए ही नहीं है, बल्कि कुंडली के सप्तम भाव अधिष्ठित किसी भी राशि में बृहस्पति हो, उससे वैवाहिक सुख अल्प ही होते हैं।



एक नियम यह भी है कि किसी भाव के स्वामी की अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर स्थिति से उस भाव के फलों का नाश होता है। सप्तम से षष्ठ स्थान पर द्वादश भाव- भोग का स्थान और सप्तम से अष्टम द्वितीय भाव- धन, विद्या और परिवार तथा उनसे प्राप्त सुखों का स्थान है। यद्यपि इन भावों में पाप ग्रह अवांछनीय हैं, किन्तु सप्तमेश के रूप में शुभ ग्रह भी चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र किसी भी राशि में हों, वैवाहिक सुख हेतु अवांछनीय हैं। चंद्रमा से न्यूनतम और शुक्र से अधिकतम वैवाहिक दुख होते हैं। दांपत्य जीवन कलह से दुखी पाया गया, जिन्हें तलाक के बाद द्वितीय विवाह से सुखी जीवन मिला।


‘‘यदि सप्तमेश बुध पाप ग्रहों से युक्त हो, नीचवर्ग में हो, पाप ग्रहों से दृष्ट होकर पाप स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की स्त्री पति और कुल की नाशक होती है।’’सप्तम भाव के अतिरिक्त द्वादश भाव भी वैवाहिक सुख का स्थान हैं। चंद्रमा और शुक्र दो भोगप्रद ग्रह पुरुषों के विवाह के कारक है। चंद्रमा सौन्दर्य, यौवन और कल्पना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण उत्पन्न करता है।


दो भोगप्रद तत्वों के मिलने से अतिरेक होता है। अत: सप्तम और द्वादश भावगत चंद्रमा अथवा शुक्र के स्त्री-पुरुषों के नेत्रों में विपरीत लिंग के प्रति कुछ ऐसा आकर्षण होता है, जो उनके अनैतिक यौन संबन्धों का कारक बनता है। यदि शुक्र -मिथुन या कन्या राशि में हो या इसके संग कोई अन्य भोगप्रद ग्रह जैसे चंद्रमा, मंगल, बुध और राहु हो, तो शुक्र प्रदान भोगवादी प्रवृति में वृद्धि अनैतिक यौन संबन्धों की उत्पत्ति करती है।


ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि इस तरह किसी भी जातक की जन्मकुंडली   से पता चलता है कि जातक या जातिका की दूसरी शादी होगी या नही।


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