समझें भावनात्मक विकास को परिवार आपसी संबंध को कैसे रखें बरकरार

समझें भावनात्मक विकास को--
परिवार, आपसी सम्बन्ध को कैसे रखें बरकरार.....


आज की जीवनशैली मे व्यापक परिवर्तन आ चुका है, सोच एवं आचरण मे पहले की तरह सादगी नही रह गयी है। हर कोई रेस लगा रहा है,काम के घंटे इतने बढ गये है कि पति-पत्नी घर पर कम ऑफिस मे ज्यादा वक्त गुजारने लगे हैं। समय की कमी और पार्ट्नर की अनुपस्थिति की वजह से जब सहकर्मियों से अपने दिल की बाते शेयर होने लगती है तब जाने अंजाने भावनात्मक संबंधा पनपने के रास्ते खुल जाते है।
आखिर उन्हे अपना भावनात्मक सुख बाहर तलाशने की जरूरत क्यों पड जाती है? 


जब आप उदास, चुनौतीपूर्ण, निराश, भ्रमित, गुस्सा, या बस घबराहट महसूस करें और सामना करने में असमर्थ लग रहा हो, तो किसी ऐसे से बात करें जिस पर विश्वास कर सकते हों – जीवनसाथी, दोस्त, माता-पिता, भाई या रिश्तेदार हो सकता है। यदि आपको लगता है कि अधिक समर्थन की जरूरत है, एक चिकित्सक या परामर्शदाता के पास जाएँ। जितनी जल्दी आप पहुँचेंगे उतना बेहतर है। याद रखें कि मदद मांगने में कोई शर्म नहीं है - यह महान शक्ति का संकेत है, न कि कमजोरी का, क्योंकि अक्सर ऐसा होता है। आप को अकेले जीवन की चुनौतियों का सामना करने की जरूरत नहीं है। लचीले लोग उपलब्ध समर्थन प्रणाली का उपयोग अपनी देखभाल करने के लिए करते हैं।


भावनात्मक सम्बंध इसलिए पनप उठते है, क्योकि दंपत्ति अपने वैवाहिक जीवन मे कुछ कमी महसूस करते है, स्त्री समझती है कि पति उस की बात नहीं सुनता और पुरूष समझता है कि पत्नी उस की परेशानियों को नही समझ पाती और बेवजह ताने देती है। इस कारण वे भावनात्मक असुरक्षा महसूस करने लगते हैं और अपने पार्ट्नर से अपेक्षा करते हैं कि वह उनके दिल की बात सुने और भावनात्मक सहारा दे,जब ऎसा नही हो पाता तो वे अपनी मानसिक संतुष्टि की तलाश अपनी वैवहिक परिधिा के बाहर करने लगते है और किसी न किसी से भावनात्मक संबंध बना लेते हैं।


भावनात्मक एकता का अर्थ – भावनात्मक एकता का अर्थ उस भावना के विकास से है जो राष्ट्र की विभिन्न जातियों, धर्मों तथा समूहों के लोगों के आपसी भेद-भावों को मिटाकर एवं सब को संवेगात्मक रूप से समन्वित राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति अपने पारस्परिक भेद-भावों को भुलकर अपने निजी हितों की अपेक्षा राष्ट्र की आवश्यकताओं, आदर्शों एवं आकांक्षाओं को सर्वोपरि समझने लगता है। भारत भी एक राष्ट्र है तथा हम सभी जातियों, धर्मों एवं वर्गों के लोग इसके निवासी है। इस राष्ट्र की स्वतंत्रता की रक्षा करना हम सभी का सामूहिक उतरदायित्व है। पर ध्यान देने की बात है कि रक्षा तभी सम्भव है जब हम अपने पारस्परिक भेद-भावों से उपर उठकर एकता के सूत्र में बंध जायें तथा अपने ह्रदय में राष्ट्र प्रेम की ज्योति जलाते रहें।


भावनाओं का प्रबंधन और भावनात्मक संतुलन को बनाए रखना एक महत्वपूर्ण कौशल है। भावनाओं के विनियमन कौशल की कमी से खराब सेहत, रिश्तों में कठिनाई और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहना हमें चुनौतियों, तनाव और असफलताओं का सामना करने में मदद करता है। यह हमें दैनिक जीवन में अधिक कार्य करने के लिए तैयार करता है। एक व्यक्ति जो मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ है वह खुद से और अन्य लोगों के साथ संपर्क करने में सक्षम होता है, और ज़िन्दगी जो चुनौतियां सामने लाती है उनका सामना करने में सक्षम होता है।


जीवन में बौद्धिक विकास से ज्यादा जरूरी है भावनात्मक विकास। सुख-शांति हासिल करने और सफल व सार्थक जीवन जीने के लिए भावनात्मक विकास के लक्ष्य पर ध्यान देना जरूरी है ताकि हर व्यक्ति अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सके। जैसे मजबूत नींव पर बहुमंजिले भवन की स्थिरता बनी रहती है वैसे ही भावना हमारे जीवन की नींव है। 


हमारी भावना जितनी सकारात्मक और नियंत्रित होगी, हमारा जीवन उतना ही सफल और सार्थक बनेगा। भावनाओं पर अनियंत्रण से ही जीवन लड़खड़ाने लगता है। तभी तो आए दिन जीवन में भावनात्मक समस्याएं बढ़ती हुई नजर आ रही हैं। आपके व्यवहार में आपकी भावनाएं जैसे क्रोध, ईष्र्या, उल्लास, खुशी, निराशा, पीड़ा-कैसे अभिव्यक्त होती हैं, इसका सीधा प्रभाव मनुष्य के अवचेतन मन पर पड़ता है। आपका व्यवहार खींचे हुए फोटो की तरह मनुष्य के अवचेतन मन में फीड हो जाता है। दूसरी बात आप क्रोध और हर्ष की स्थिति में दूसरों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं, इसका भी प्रभाव आपके भावनात्मक विकास पर पड़ता है।


 आज यह मुद्दा चिंता का विषय बनता जा रहा है कि व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है। इन्हीं स्थितियों में व्यक्ति निराशा से अपने जीवन को कुंठित कर देता है, क्योंकि वह ईष्र्या, क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाओं का सामना नहीं कर पाता।


 हमारे राष्ट्र में अब जातीयता, प्रान्तीयता तथा साम्प्रदायिकता आदि अनके विघटनकारी प्रवृतियाँ आवशयकता से अधिक प्रबल हो रही है। दक्षिणी भारत में एक ऐसा वर्ग है जो उतरी भारत में प्रथक होना चाहता है। हिन्दुओं और सिक्खों में भी मतभेद है। इसी प्रकार अनके स्थानों पर इन विघटनकारी प्रवृतियों के वशीभूत होकर अलग-अलग राज्यों की मांग की जा रही है। यही नहीं, सरकारी नौकरियों में भी जातीयता, प्रान्तीयता तथा साम्प्रदायिकता की भावनाओं के आधार पर ही अपने-अपने लोगों की नियुक्तियां की जा रही है। इन सब विघटनकारी प्रवृतियों के कारण चारों ओर मर-काट तथा लड़ाई-झगडे हो रहे हैं जिससे भारतीय जनतंत्र खतरे में पड़ गया है।


 ऐसी परिस्थितियों में इस बात की आवश्यकता है कि देश के सभी निवासियों को इस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय मनोवृतियों से बचाकर उनमें ऐसी अभिवृतियों का विकास किए जाये जिससे वे पुन: एकता के सूत्र में बन्ध जायें। इस महान कार्य को पूरा करने के लिए हमें प्रत्येक नागरिक में ऐसे संवेगों का विकास करना चाहिये जो पृथकता की अपेक्षा एकता का प्रोत्साहित करें। दुसरे शब्दों में, हमें प्रथककिकरण को बढ़ावा देने वाले समस्त धार्मिक, भाष्य एवं साम्प्रदायिक संवेगों को दबाकर राष्ट्रीय मस्तिष्क का निर्माण करना होगा। स्वर्गीय पं० नेहरु ने भी यही कहा था – “ हमें प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता तथा जातीयता की संकीर्णता से उपर उठकर भारतीय नागरिकों के बीच भावनात्मक एकता की स्थापना के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये जिससे हम अपनी विभिन्नताओं को रखते हुए भी एक सुद्रढ़ एवं सबल भारतीय राष्ट्र का निर्माण कर सकें।


भावनात्मक प्रतिभा के विकसित न होने के कारण ही भावना के प्रवाह में व्यक्ति अपने को नहीं संभाल पाता। नतीजतन अनहोनी घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। ये घटनाएं हमें चेतावनी देती हैं कि आधुनिक मनुष्य किस भावदशा में अपनी जिंदगी जी रहे हैं। जेटयुग में जीने वाले व्यक्ति के बौद्धिक विकास का स्तर तो अच्छी तरह बढ़ रहा है, पर भावनात्मक विकास का स्तर घट रहा है। इसके कारण उसके जीवन में एक ठहराव-सा आ जाता है। उसे क्या करना है, कैसे करना है, इस तरह की वह कोई प्लानिंग ही नहीं कर पाता। ऐसा लगता है निषेधात्मक विचारों का कुछ ज्यादा ही दबाव मनुष्य के जीवन पर आ जाता है। इस कारण वह किसी के साथ सही तरीके से न रिश्ते निभा पाता है और न ही तालमेल बिठा पाता है। तभी तो आज भावनात्मक विकास का महत्व बढ़ रहा है।


हमारी शिक्षा का उदेश्य यह होना चाहिये कि वह भारत वासियों में ऐसी भावात्मक एकता का संचार करे जिससे वे अपनी जाति , धर्म, वर्ग, तथा क्षेत्र की संकीर्ण आधारों पर उत्पन्न होने वाले भेद-भावों को भूल कर सम्पूर्ण भारत को अपना देश समझने लगे और समस्त भारतियों को अपना भाई। अत: हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो बालकों में जनतंत्रीय मूल्यों को विकसित कर के भारतीय समाज के रीती-रिवाजों, परम्पराओं तथा विश्वासों के परती आदर की भावना उत्पन्न करे, उनमें ऐसी उचित अभिरुचियों, दृष्टिकोण तथा संवेगों का विकास करे तथा उनमें सामान रूप से चिन्तन मनन एवं कार्य करने की आदतों का विकास करते हुए नैतिक एवं अध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करे। ऐसी शिक्षा में राष्ट्रीय एकता की भावना अवश्य विकसित होगी जिसके परिणामस्वरूप संकीर्णता एवं भ्रष्टाचार का अन्त हो जायेगा और राष्ट्र दिन-प्रतिदिन उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहेगा।


जिनको आप प्यार करते हैं और जिनके साथ आप की पटती हैं उन लोगों के साथ समय बिताने से आप में मूल्यवान होने और सराहना किए जाने की भावना आती है। अपने दोस्तों, परिवार, साथियों और पड़ोसियों के साथ स्वस्थ संबंधों का होना आप में भावनात्मक स्वास्थ्य और जुड़ने की भावना समृद्ध कर सकता है। एक सहयोगी के साथ दोपहर का भोजन करने या कुछ समय से न मिले दोस्त के साथ समय बिताने की योजना बनाएं। कोई प्रौद्योगिकी एक मुस्कान या प्रिय को गले लगाने की जगह नहीं ले सकती है।


ज्यादातर भावनात्मक प्यार मासूम, साधाारण सी दिखने वाली दोस्ती से शुरू होते हैं। समस्या तब आती है जब दोस्ती अंतरंगता का रूप ले लेती है, अफेयर करने वाले स्त्री-पुरूष बजाय अपने जीवन साथी के, एक-दूसरे से बाते शेयर करने लगते हैं और साथ ही वे यह कोशिश भी करते हैं कि जीवन का यह पहलू साथी से छिपा रहे। 


इस तरह करें बचाव के उपाय--


"अधिक सचेत होने का मतलब है कि बिना अतीत या भविष्य के बारे में ज्यादा सोचे बस वर्तमान में रहें; चुने कि आप को किसका जवाब देना है, बजाय इसके कि जो भी प्रकट हो ज़हन में आए या अनुभव हो उस के साथ बहते चले जाएँ; एक समय पर एक जगह ध्यान केंद्रित करना, गैरआलोचनात्मक रहते हुए चीजों और स्थितियों की ओर नश्वरता का रवैया रखें। भावना का दमन अवसाद या व्यग्रता विकारों को उत्पन्न कर सकता है। यहाँ तक कि क्रोध और उदासी जैसी भावनाएं भीअभिव्यक्ति के योग्य हैं। हमें केवल यह जानने की जरूरत है कि कैसे व्यक्त करें जिससे हमारे ऊपर, हमारे रिश्तों पर और वातावरण पर कहर पैदा न हो कोई भावना स्वयं के द्वारा अच्छी या बुरी नहीं होती। 


अपनी देखभाल करना, मानसिक और भावनात्मक भलाई का अनिवार्य हिस्सा है। अपनी भावनाओं को रचनात्मक तरीके से व्यक्त करने से तनाव और संघर्ष का सामना करने में आसानी हो जाती है। खुद के लिए अलग समय निर्धारित करें; अपनी भावनात्मक जरूरतों को देखें, किताब पढ़ें, खुद को संतुष्ट करें, या बस आराम करें और अपने दैनिक कार्यों के बारे में चिंता किए बिना स्वच्छंद हों।


सूरज की रोशनी से मस्तिष्क में सेरोटोनिन का उत्पादन बढ़ जाता है- यह वह रसायन है जो मनोदशा को नियंत्रित करता है। रोज़ सूर्य के प्रकाश में रहना अवसाद से बचने में मदद करता है। शारीरिक गतिविधियां मस्तिष्क के लिए भी फायदेमंद है। व्यायाम ऊर्जा को बढ़ाता, तनाव और मानसिक थकान कम कर देता है। आप ऐसी गतिविधि का पता लगाएं जो आप को आनंद देती हों, ताकि यह प्रक्रिया आप के लिए रोमांचक हो सके।


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