जगत -जाल

                               -: जगत-जाल :-                                                   क्षणभंगुर जीवन की ज्योति ,बढ़ता नशा जवानी का ।             तेज हवा का झोंका आया दीपक बुझे कहानी का।।                         नग्न बदन से आया जग में ,नग्न बदन ही जाएगा ।                 कालचक्र के पाट भयंकर उसमें तू पीस जाएगा।।                   नाटककार बना तू ऐसा गिरगिट रंग बदलता जैसे।             काले धन का विषधर बनकर संघ मणि के चलता जैसे।।       कामदेव का वस्त्र बदन पर आंखों पर मद की पट्टी।            तेरे तन में भीतर केवल , मलवा मांस और हड्डी।।                    काम क्रोध मद लोभ मोह के वशीभूत हो जाता है ।                          चार दिनों का जग का मेला वापस वक्त न आता है।।              सोलह ऊपर चढ़ी जवानी मद में जोश हाथ में लाठी ।        अस्सी साल हिले जब गर्दन रोए पकड़ खाट की पाटी।।           चलता समय देख ले बंदे घंटे चार जवानी के ।                            काल लिये परिणाम खड़ा है कर्म किए हैवानी के।।                 भटक रहा तू अंधकार में पथ पापों से गंदा है।                 भोग विलास भरा है जीवन पड़ा गले खुद फंदा है।।               चर्मकार की तरह चर्म पर लगता मानव मेला है।                मरघट पर अंतिम ज्वाला में जलता हंस अकेला है।।              गृहस्थी के बंधन बन बैठा जग में धन का चौकीदार ।                         पहरे में दिन-रात बोलता रहो जागते होशियार।।                    माता -पत्नी, पिता- पुत्र का रूप लिए जग का मेला ।      पिछले कर्मों का हिसाब है झूठे रिश्तो का रेला।।                    बेटा बाप बाप ने बेटा धन की खातिर खत्म किया है।                   मानवता की देवी तड़पे नहीं अधर्मी रहम किया है।।                भाई बना जान का दुश्मन मां का दूध खून का प्यासा।     दौलत का बन गया सिकंदर स्वार्थ सिद्धि का फेंके पासा।।         भुला भूत भविष्य भी अपना वर्तमान का कपटी मानव ।      भूखा मरे पड़ोसी बेशक सबकी दौलत का तू दानव।।               छल का वस्त्र कपट का आसन पाखंडो का पाठ किया है ।                हिंसा की वेदी पर तूने लूट नाम का जाप किया है।।                 धनीराम दौलत के दम पर झूल रहा झूला दीवाना ।                   सोना चांदी खा नहीं पाए रोटी में गेहूं का दाना।।            जगत जाल में फंस कर तूने खेला खेल-खिलाड़ी कच्चा।                नाच रहा तू प्रेम पास में ऊपर देख मदारी सच्चा।।                 बचपन बीता गई जवानी धर्म हीन को मति ना आई ।         लिए बुढ़ापा दर-दर डोले कर्मों ने दुर्गति बनाई।।                      मानव माया मोह जाल में फंसकर निकल ना पाता है।              दरवाजे पर मौत खड़ी है अब क्यों रुदन मचाता है।।              घरवाली घर के दरवाजे घरवाले शमशान के साथी।              धन दौलत और माया सारी रह जाए सब घोड़े हाथी।।             फरसा का लिए फिरता है नाजुक बदन घात है भारी ।            भज ले हरि का नाम तू बंदे आ जाए कब मौत बेचारी।।             लेखक  :   इंजीनियर ओमवीर सिंह मालान                          मोबाइल:            9460724445


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