बिहार - मप्र की सियासत में गुटबाजी, बढ़ी दिग्गजों की चिंता

बिहार - मप्र की सियासत में गुटबाजी, बढ़ी दिग्गजों की चिंता



                     प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़ 


               (वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)


 


 मप्र और बिहार में चुनाव की चौसर पर शह और मात की राजनीति आरंभ हो चुकी हैं। समय कम हैं और चुनावी क्षेत्र के नेताओं की जमीनी लड़ाई पार्टियों के अंदर से ही बाहर निकल कर आ रही हैं। इस लड़ाई ने दलबदल का रूप धारण कर लिया हैं। इससे आलाकमान की चुनावी रणनीति को सेंध लगने का भय सताएं जा रहा हैं। बिहार में एनडीए की सहयोगी पार्टियों में भी टिकिट के बटवारें को लेकर अंदरुनी जद्दोजहद बड़े जोर शोर से चालू हैं। वहीं मप्र में यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा हैं कि सीटें कौन से चेहरें निकालकर ला सकते हैं।


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 राजनीति में कहा जाता हैं कि जब मंसूबे पूरे ना हो तो नेताओं की सोच भी बदल जाती हैं और वे इस घुटन में ज्यादा दिनों तक एक ही पार्टी में अपने को कायम नहीं रख पाते हैं। सिंधिया ने भी वही किया और उनके समर्थकों ने भी उसी घुटन के चलते पार्टी का दामन छोड़कर भाजपा ज्वाईंन कर ली। मप्र में उपचुनाव सिर पर हैं। संभवत 25 सितम्बर से राज्य में आचार संहिता भी लग जाएगी। ऐसे में उपचुनाव की रणनीति और तमाम मुद्दों को लेकर बैठकों के दौर भी शुरू हो जाएगें। मप्र में 28 सीटों पर उपचुनाव होना हैं। ग्वालियर -चंबल की सबसे ज्यादा सीटों पर कांग्रेस और भाजपा की नजरें हैं। सूत्रों कि माने तो यह एक ऐसा उपचुनाव सीटों वाला झोन हैं जहां से हार और जीत दोनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के लिए एक सबसे बड़ा दांव हैं। यदि कांग्रेस सभी सीटें जीतती हैं तो भाजपा संभवत सत्ता से बाहर भी हो सकती हैं। और यदि कांग्रेस हारती हैं तो उसे फिर केवल विपक्ष की प्रमुख भूमिका निभाने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। इसलिए कांग्रेस मप्र में अपनी पूरी ताकत झोकने का मानस बना चुकी हैं। अपनी आपसी गुटबाजी को कांग्रेस ने हालफिलाल बिल्कुल विराम दे दिया हैं। अब यदि तूफान और भूचाल कोई उठने वाले हैं तो भाजपा के अंदरूनी कलह के कारण ही आने वाले हैं। जो दिग्गज भाजपा आलाकमान से नाराज चल रहें हैं तो उन्हें कांग्रेस तोड़ने में जुटी हुई हैं। बिहार में एनडीए के सर्वे रिपोर्ट में बड़ी कामयाबी दिखाई जा रही हैं। परन्तु बिहार में नीतिश के लिए इस बार की लड़ाई बहुत आसान नहीं हैं। मुम्बई कंगना रतौत का कार्यालय टूटा तो शिवसेना पर सहयोगी पार्टियों ने ही हाथ खड़े कर दिए। पूर्व में सिंधिया के समर्थन में पिच्चोत्तर हजार लोगों ने एकाएक भाजपा की सदस्यता का ढोल पीट दिया। खबर आई कि ये वे लोग थे जो कभी कांग्रेसी थे ही नहीं। सिंधिया और केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र तोमर के लिए ग्वालियर-चंबल झोन एक प्रतिष्ठा का विषय है। आरएसएस की खौफियां जानकारी और सर्वे में उपचुनाव भाजपा के हाथ से सीधे निकलता जा रहा हैं। ऐसे में हाल ही में सनसनी खबरों की बाढ़ आ गई हैं कि भाजपा के बड़े नेताओं ने नाराजगी के चलते ग्वालियर व चंबल जोन में प्रचार और बैठकें करने को लेकर एक दूरी बना ली हैं। ऐसा क्यों हो रहा हैं।खबर है कि मप्र में स्वयं आरएसएस उपचुनाव की कमान संभालने के मूड में हैं।भाजपा में संगठन स्तर पर कुछ परिवर्तन भी होने जा रहे हैं। बदलाव के मायने यह हैं कि पार्टी के लिए एक चिंतनीय और गंभीर वैचारिकता का प्रश्न खड़ा हो चुका था कि उपचुनाव सिर पर हैं और आपसी गुटबाजी का कहर चारों तरफ दिखाई दे रहा हैं। खिंचड़ी में जरूर कोई चावल ऐसे जो सबके साथ समन्यवयित हो पा रहें हैं। इसका प्रभाव सीएम चौहान और सिंधिया के चेहरों पर साफ देखा और पढ़ा जा सकता हैं। खबर यह भी हैं कि डेमेज कन्ट्रोल का जिम्मा अब चौहान और सिंधिया के सिर फोड़ा जा रहा हैं। डैमेज कन्ट्रोल से कहीं बड़े नेताओं की नाराजी भी सामने ना आ जाए यह डर भी सता हैं। मंत्री इमरती देवी और ऊर्जा मंत्री तोमर इन दोनों के कारण ही सब जगह संदेश भी गलत गए हैं। सिंधिया और चौहान अब ये दोनों ही सारे डेमेज हालात को कन्ट्रोल भी करेंगे। संगठन मंत्री सुहास भगत ने पहले ही दूरी बना रखी हैं। वहीं ग्वालियर और चंबल संभाग में भाजपा और संघ के कई कार्यकर्ताओं ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। संघ फिर से जान फूंकने में जुटा हुआ हैं। उनका भी यही कहना हैं कि हम मेहनत करके सींट निकालते हैं और विधायक लोग दलबदल कर लेते हैं। हाल ही में,सीएम चौहान ने उपचुनाव की गंभीरता को देखते हुए पार्टी कार्यकर्ताओं और उपचुनाव क्षेत्र प्रभारियों की एक बैठक भी ली। जिसमें चौहान ने दो टूक सभी से यही कहा भी हैं कि,'राजनीति में कोई राजा नहीं होता हैं प्रजा ही राजा होती हैं।' ये सीधा व्यंग्य सिंधिया और उनके गुट के नेताओं के लिए था। सीएम चौहान का यह शब्द ही शायद सिंधिया और उनके समर्थकों को गहरी चोट कर गया हैं।इसलिए मंत्री इमरती देवी कलेक्टर की मदद से चुनाव जीतने की बात बोल गई हैं। वहीं सीएम चौहान का कहने का मकसद साफ था कि पार्टी के लिए सब मिलकर काम करें ना कि राजा --राजा-- का ढोल पिटा जाएं। सूत्रों कि माने तो आरएसएस के कई दिग्गजों ने भी पार्टी के शीर्ष नेताओं को आगाह कर दिया हैं कि ग्वालियर -चंबल के जनाधार को यदि समय रहते नहीं संभाला गया तो उपचुनाव का ऊंट कभी भी पलटी मारकर सत्ता के लिए बड़ा घातक सिद्ध हो सकता हैं। गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा और सीएम शिवराजसिंह चौहान में भी कई मुद्दों पर आपसी वैचारिक मतभेद हैं जो समाचारों की सुर्खी बने हुए हैं। दोनों दो विपरीत दिशा में कदम बड़ा चुके हैं। मिश्रा को अमित शाह का पूरा समर्थन हैं तो चौहान की पीएम का। चर्चा हैं कि कहीं ये गुटबाजी भी सत्ता के लिए कोई बड़ी कुर्बानी ना सिद्ध हो जाएं ! राष्ट्रीय संगठन मंत्री बी एल संतोष ने हाल ही में ग्वालियर और उपचुनाव सीटों के क्षेत्र का दौरा किया था। उन्हें बेहद दुख हुआ कि हर जगह गुटबाजी और उपचुनाव में कई बड़े और जमीनी नेताओं में कोई दिलचस्पी भी नजर नहीं आई। इसकी रिपोर्ट बीएल संतोष ने पार्टी आलाकमान को सौंप दी हैं। उन्होंने रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा हैं कि उपचुनाव को लेकर ना तो विधायकगण गंभीर और ना ही सांसदगण। रिपोर्ट का अर्थ भी यही हैं कि कांग्रेस को भाजपा की कमजोरियों का बहुत बड़ा लाभ उपचुनाव में मिल सकता हैं। क्योंकि अभी के हालातों से उपचुनाव के परिणाम सीधे- सीधे कांग्रेस की और बढ़ते नजर आ रहे हैं। रिपोर्ट की नजाकत को समझतें हुए मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नुड्डा ने भी इस बात को गंभीरता से लिया हैं। अब अमित शाह स्वयं सांसदों और विधायकों की क्लास लेने की सोच रहे है। यह तो समय ही बताएगा कि अमित शाह की क्लास से कोई ऊर्जा पैदा होती हैं या पुन गुटबाजी ही सबके सिर चढ़कर बोलती हैं। कांग्रेस ने कमलनाथ को एक अवसर देते हुए उपचुनाव की रणनीति के निर्णयों के लिए पूरी हरी झंडी दे रखी हैं। ऐसे में कई भाजपा नेताओं में भी असंतोष तेजी से उभर कर सामने आ रहा हैं। सिंधिया को उनके ही गृह क्षेत्र में कड़ी टक्कर देने वाले उनके ही सहयोगी भाजपा छोड़ कांग्रेस में जा रहे हैं। अब देखना यह हैं कि कोरोना काल की कमजोरियों और मतदाताओं की नाराजी उपचुनाव में किसकी सत्ताई वैतरणी पार करती हैं भाजपा कि या कांग्रेस की!


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