चिराग की महत्वाकांक्षा व बड़बोले बोल से भाजपा का किनारा

चिराग की महत्वाकांक्षा व बड़बोले बोल से भाजपा का किनारा 



                 प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़ 


           (वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)


मोहब्बत,जंग और राजनीति में सब कुछ जायज हैं। रातों रात क्या परिवर्तन हो जाएगें यह कहना और सोचना भी एक अपराध हो सकता हैं। रामविलास पासवान के देश के हर एक पार्टी के दिग्गज नेताओं से बड़े ही मधुर संबंध रहें हैं। भारत रत्न अटलजी ने ही एक समय राजनीति की एक नवीन परिभाषा विकसित की थी कि सब पार्टियां संयुक्त रूप से मिलकर देश विकास में आगे बढ़ते चलें। लालु यादव,रामविलास पासवान अकाली दल के कई नेता सभी सहयोगियों ने भाजपा के सिद्धांतों में सहभागी बनकर एकजुटता का परिचय दिया हैं। परन्तु आज किसान बिल पर अकाली दल ने एनडीए से किनारा कर अपने एक केन्द्रीय मंत्री को त्यागपत्र भी दिलवा दिया। वहीं पच्चीस साल पुरानी दोस्ती तोड़कर शिवसेना ने भाजपा से किनारा कर लिया। ऐसे ही रामविलास पासवान के देहांत के बाद बेटे चिराग ने बिहार में एनडीए का अंग ना बनकर अपनी राजनीति महत्वाकांक्षा के चलते जुड़ने के पहले ही नाव अकेले खैना शुरू कर दिया। इस मामले में लालू की अनुपस्थिति में उनके बेटे तेजस्वी यादव ने अपने सहयोगियों को उसी तरह जोड़ें रखा हैं जैसे लालूयादव लेकर चलते रहे हैं। आज बिहार में तेजस्वी यादव एक ज्यादा ही कुशल और मजे हुए युवा नेता के रुप में सबसे प्रभावी नेता बनकर उभर चुके हैं। तेजस्वी यादव ने यह पहचान जमीनी स्तर पर स्वयं अपनी कला,कुशलता और युवाओं की सोच को पकड़कर बनाई हैं। चिराग के सामने पिता के गुजरते ही अपने लोजपा राजनीति दल की अध्यक्षता ने कई मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। भाजपा के केन्द्मंरीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और चिराग के बीच का आरोप -प्रत्यारोप वाला संवाद चिराग के राजनैतिक कैरियर को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है। वोट काटने और वोट बचाने वाली राजनीति का लाभ सीधे सीधे तेजस्वी यादव को मिलता नजर आ रहा हैं। चिराग ने राजनीति में अभी स्वयं चलना सीखा ही था कि अपनी स्वयं की हढ़धर्मिता के कारण अकेले पूरी ताकत बिहार में अपनी छवि बनाने के लिए झोंक दी हैं। चिरीग के पिता ने पहले चिराग को राज्य या केन्द्र में मंत्री के रूप में राजनीति के और सहयोगियों के दांव पैंच से रूबरू करवाना चाहिए था ना कि रामविलास पासवान ने सत्ता में बने रहने का मोह लेकर बेटे को दूर रखना था। उदाहरण देश के सामने हैं कि मनमोहनसिंह सरकार में राहूल गांधी केवल एक नेता बनकर रह गए और जब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की बारी आई तो उनको मंत्री पद का अनुभव ना होने से पद लाभ और कद दोनों दूर होते चले गये। चिराग ने जो गलती की है उसके परिणाम चिराग की लोजपा पार्टी को बहुत भारी पड़ सकते हैं। कांग्रेस में जो तकरार और माहौल अध्यक्ष पद को लेकर बने हुए हैं उससे कांग्रेस विगत कई वर्षों से बिखरती और टूटती नजर आ रही हैं। एक बार फिर से काश्मीर का राग अलाप रहे फारूख और उमर अब्दुल्ला को वर्षों पहले की सियासत याद आने लगी हैं। देश की एकजुटता के प्रति समभाव ना रखने की सजा बाप और बेटे अब्दुल्ला खानदान को झेंलना पड़ी हैं। आज उनकी राजनीति से सब पार्टियों ने किनारा कर लिया हैं। भाजपा के कारण ही उन्हें मंत्री पद मिला और एक उच्च दर्जे का सम्मान भी मिला किन्तु आज सब कुछ खोकर काश्मीर की वादियों को घर की चार दिवारी में याद कर रहे हैं। क्योंकि काश्मीर अब पहले वाला काश्मीर नहीं रहा हैं। मेहबूबा,उमर और फारूख ने जो सोच काश्मीर के लिए बना रखी थी वह सब नेस्तनाबूद हो चुकी हैं। अब इन तीनों को काश्मीर में रहकर केवल सबका हितैषी बनकर बड़े बैनर भाजपा के ही सहारे राजनीति करना पड़ सकती हैं। अब काश्मीर में ना अलगाववादियों का राज हैं ओर ना ही पत्थरबाज नेताओं का कोई वर्चस्व हैं। विकास की बहती जम्बूतवी में अमन चैन और खुशहाली ने काश्मीर के मौकापरस्त नेताओं को बहुत कुछ सीखा दिया हैं। मप्र में भी उपचुनाव की धूम मची हुई हैं। राज्य में शिवराज और कमलनाथ अब सीधे सीधे चुनाव लड़ रहे हैं।जो शाब्दिक प्रहार चल रहे हैं उससे ना तो क्षेत्र की जनता का भला होगा और ना ही कोई विकास के मुद्दों से ये दोनों पार्टियां जनता को समझा पा रही हैं। मप्र में बसपा,सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों की तो लोग चर्चा भी नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा के बड़े नेताओं को शिवराज पर भरोसा नजर आ रहा हैं किन्तु राजनीति गलियारों में खबर तो यह चल रही है कि यदि भाजपा मप्र में उपचुनाव में कमलनाथ के हाथों शिकस्थ होती हैं तो शिवराज का राजनैतिक भविष्य भी खतरें में पड़ सकता हैं उन्हें सीधे केन्द्र में या किसी अन्य राज्य में राज्यपाल भी बनाया जा सकता हैं। कमलनाथ ने कांग्रेस के आलाकमान को ना जाने क्या घुट्टी पिला रखी हैं कि कांग्रेस ने एक बार फिर कमलनाथ पर शतप्रतिशत विश्वास करके पूरी कमान कमलनाथ को सौंप दी हैं। सिंधिया के लिए भी खतरें की घंटी यह हैं कि यदि उपचुनाव में उनके सभी समर्थक चुनाव जीत नहीं पाते हैं तो सिंधिया के लिए मप्र में राजनीति का भविष्य बहुत बड़ा गलत सौदा साबित हो सकता हैं। ऐसे में सिंधिया के मप्र के मुख्यमंत्री बनने के सपनों को भी ग्रहण लग सकता हैं। सही मायने में मप्र में सभी बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा पूरी तरह दांव पर लगी हुई हैं। यही कारण हैं कि प्रचार प्रसार के दौरान विकास के मुद्दों से हटकर केवल एक दूसरों पर भड़ास निकालने का दौर चालू हो चुका हैं। हर कोई किसी ना किसी की छवी को धूमिल करने में लगा हुआ हैं। परन्तु जनता हैं कि सब जान चुकी हैं कि उपचुनाव में यदि उन्होंने अपने मत का सही उपयोग नहीं किया तो वे कभी अपने को माफ नहीं कर पाएगें। बिहार में भी नीशित की लड़ाई ना केवल लालु वंशजों से हैं वरन चिराग का वोट काटने का डर भी रात दिन नींद उड़ाता जा रहा हैं। कभी नीतिश सबसे वफादार रहे चुवाव प्लानर भी नीतिश के खिलाफ दरवाजा खोलकर जनमानस में उतर चुके है। पश्चिम बंगाल में ममता को मप्र के उपचुनाव और बिहार के आम चुनाव से बहुत कुछ सीखनें को मिल सकता हैं। ये दोनों चुनाव ही तय कर देगें कि पश्चिम बंगाल में अगला मुख्यमंत्री किस पार्टी का बनेगा! मप्र में भाजपा को कांग्रेस से उतना डर नहीं लग रहा हैं जितना उसको उसके ही नाराज नेताओं का डर सताएं जा रहा हैं। एक को मनाओं तो दूसरा नाराज हो रहा हैं। ऐसे में कांग्रेस ने हर मोर्चे पर जीत का बड़ा सुनियोजित प्लान बना चुकी हैं।


Comments

Popular posts from this blog

नाहटा की चौंकाने वाली भविष्यवाणी

मंत्री महेश जोशी ने जूस पिलाकर आमरण अनशन तुड़वाया 4 दिन में मांगे पूरी करने का दिया आश्वासन

उप रजिस्ट्रार एवं निरीक्षक 5 लाख रूपये रिश्वत लेते धरे