चुनावी जंग में विकास मुद्दों को छोड़ बोलवचन के सहारे प्रत्याशी                                     

चुनावी जंग में विकास मुद्दों को छोड़ बोलवचन के सहारे प्रत्याशी                                   


           डां. तेजसिंह किराड़


(वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)


 


एक तरफ देश में कोरोना महामारी के गीले शिकवे अभी खत्म भी नहीं हुए हैं वहीं बिहार में चुनावी राजनीति ने नियमों को धता बताकर सुशांत के न्यायिक मुद्दों के समर्थन में स्कूली बच्चों को सड़कों पर उतार कर राजनीति का गंदा खेल बच्चों की कोमल भावनाओं के साथ खेला जा रहा हैं। शालाओं के मासूम बच्चों के हाथों में बैनर व डंडे पकड़ाकर कुछ पार्टी के नेताओं ने सुशांत को अपनी जीत का हथियार बना लिया हैं। मानवाधिकार आयोग की नाक के नीचे मासूम बच्चों का इस तरह शारीरिक और मानसिक शोषण एक घोर निंदनीय अपराध बन रहा हैं।


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देश की सवा सौ करोड़ जनता को अब वह देखना,सुनना और दृश्यों से रूबरू होना पड़ रहा हैं जो सब कुछ राजनीति और सामाजिक जीवन में कोरोना महावैश्विक बीमारी के काल में घटित हो रहा हैं। भारत में बिहार और मप्र में हो रहे चुनावों की राजनीति ने सारे नियमों को ताक में रखकर मानवीय जिंदगीयों के साथ सरासर खुलकर खिलवाड़ किया जा रहा हैं। कोरोना के चलते जो बच्चें अपने घरों में सुरक्षित महसूस कर रहें थे वे हजारों लाखों बच्चों का इस्तमाल खुली धूप में भूखें प्यासें सुशांत को न्यायिक न्याय दिलाने के समर्थन में सड़कों पर खड़ें करके उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा हैं। ये वे मासूम बच्चें हैं जिन्हें यह तक पता नहीं हैं कि सुशांतसिंह राजपूत की मौत कैसे हुई? कहां हुई? और इस प्रकरण की जांच कौन कर रहा हैं ? बच्चों की जिंदगी को दांव पर लगाने वाले नेताओं ने पर्दे के पीछे से चुनावी राजनीति आरंभ कर दी हैं। जबकि इन मासूम बच्चों को सुशांत राजपूत के प्रकरण से कोई लेना देना नहीं हैं फिर भी चुनाव आयोग यह सब देखकर भी मौन साधे हुए हैं ! केन्द्रीय जांच संगठन अपने स्तर पर सुशांत की मौत के प्रकरण की सच्चाई को जानने में चार माह से जुटी हुई हैं। परन्तु खोदा पहाड़ और निकली चुईयां वाली कहावत अब रोज चरितार्थ हो रही हैं। बिहार की लगभग सभी राजनीति पार्टियों ने विकास के और क्षेत्रीय मुद्दों की बातों को छोड़कर सुशांत की रहस्यमय मौत को ही अपनी जीत का एक पहलु बना लिया हैं। ऐसे में बिहार के सभी मतदाता दिकभ्रमित हो चुके हैं कि आखिर वोट सुशांत के नाम दे या विकास के वादे नहीं करने वालों को दें? चुनाव का समय जैसे जैसे नजदीक आ रहा हैं वैसे वैसे मप्र और बिहार के हर एक मंत्री और नेताओं के बोलवचन भी आरोप प्रत्यारोप को लेकर बिगड़ते जा रहे हैं। हर कोई अपनी जीत सुनिश्चित करने की जुगाड़ में जो मन में आया वहीं बोलकर काम चलाने की शाब्दिक तकनीक अपनाने में लगे हुए हैं। यहां तक कि दोनों के मुखिया मुख्यमंत्री भी बोलने में कोई परहेज नहीं कर रहे हैं। मप्र में कांग्रेस ने बड़ा दिल बनाकर सब बोलवचनों का जहरीला घूंट पीना सींख लिया हैं। भाजपा कहीं भी धैर्य और संयम से बहुत दूर नजर आ रही हैं। इससे साफ अनुमान लगने लगा हैं कि दोनों ही राज्यों में भाजपा को बड़ी कड़ी टक्कर झेंलना पड़ रही हैं। राजनीति के पंडितों का मानना है कि मप्र और बिहार में विकास के नाम पर कोई भी फेक्टर वर्तमान सरकार का जमीनी स्तर पर मतदातों के गले के नीचें नहीं उतर पा रहा हैं। ऐसे में मप्र में शिवराज चौहान और बिहार में नीतिश कुमार के लिए अपनी पूरी राजनीति प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई हैं। महाराष्ट्र के शिवसेना प्रवक्ता सांसद संजय राउत ने नीतिश कुमार को यहां तक कह दिया कि बिहार में यदि मतदातों के लिए कोई विकास के मुद्दें ना हो तो वे महाराष्ट्र के सुशांत प्रकरण से जुड़े मुद्दों को शिवसेना से मांग सकते हैं। राउत की यह चुनाव लड़ने की नसीहत नीतिश और तेजस्वी यादव और लोजपा के चिराग पासवान सबके काम आ सकती हैं। क्योंकि बिहार में सभी पार्टियों ने सुशांत के मौत से जुड़े मुद्दों को ही अपनी पार्टी की जीत का प्रमुख मुद्दा बना रखा हैं। यहां तक कि बिहार के पुलिस महानिदेशक को भी सुशांत के बारे में खुलकर बोलने का पुरस्कार राजतिलक करके दे दिया हैं। परन्तु उन मासूम बच्चों का राजनीति और सुशांत से क्या लेना देना जो सुशांत के लिए समर्थन में बैनर ओर डंडें झंड़े पकड़कर सड़कों पर उतर कर घंटों धूप में नारे लगा रहे हैं! राज्य की सरकार जो बच्चों और बेटियों के लिए कानून बनाती हैं और जब अत्याचार उन पर होता हैं तो मुकदर्शक बनकर सब कुछ देखती रहती हैं। ऐसे में बच्चों और बेटियों की सुरक्षा के लिए राज्यों में किसे जवाबदेह माना जाएं?


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