मातृभाषा,मातृभूमि और माता-पिता से दूर होती नई पीढ़ी

 मातृभाषा,मातृभूमि और माता-पिता से दूर होती नई पीढ़ी 



                    प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़ 

                  (वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद) 

हर काल में ना केवल राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में भारी उतार -चढ़ाव देखने को मिलते हैं  वरन समाज की सामाजिक और संस्कारमूल्यों वाली सबसे कीमती विरासती धरोहर भी  ज्यादा प्रभावित देखने को मिलती हैं। महान चाणक्य ने कहा हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को देश,काल और परिस्थितियों के अनुरूप संवारा जा सकता हैं परन्तु यदि किसी परिवार,समाज और राष्ट्र का नवनिर्माण करने वाली भावी नौनिहाल  पीढ़ी और युवा वर्ग ही यदि संस्कार और जीवनमूल्यों की सांस्कृतिक धरोहर से वंचित रह जाएगें तो वह परिवार,समाज और राष्ट्र कभी भी प्रगति पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता हैं। चाणक्य तात्कालिक समय के सबसे बड़े दूरदृष्टा और महान दार्शनिक भी थे। आज हर एक भारतीय समाज में ऐसी ही मिलती जुलती कहानियां जन्म ले चुकी हैं जो दो पीढ़ियों के बीच एक बड़ी वैचारिक दरार के रूप में और अन्तर द्वंद की मानसिक पीड़ा से गुजर रही हैं। आज के युवाओं को ना मातृभाषा का पूर्ण ज्ञान हैं और ना अपनी मातृभूमि के प्रति त्याग,सेवा और सम्मान का भाव हैं और ना ही जन्मदाता माता पिताओं के प्रति जवाबदेही का गंभीर रुप से कोई एहसास ही हैं। कोरोना काल ही नहीं इसके पूर्व का भी मूल्यांकन करना सबके लिए उचित जान पड़ता हैं। आज स्कूल,कालेज और संस्कारमूल्य  सिखाने वाले शैक्षणिक संस्थान लगभग कई महिनों से बंद पड़े हुए हैं। मार्च में कोरोना वायरस की ऐतिहासिक दस्तक ने हर परिवार के छोटे बच्चों को घर की चार दीवारी में कैद कर दिया हैं। शारीरिक और मानसिक व्यायाम से दूर स्कूली बच्चों को घर का परिवेश अब काटने जैसा लगने लग रहा हैं। परिवार के सदस्यों में रात दिन चौवीस घंटों रहने से उनकी  वैचारिक,बौध्दिक और मानसिक सोच पर गहरा असर पड़ चुका हैं। अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को माता-पिता से ना तो अंग्रेजी सींखने को मिल पा रही हैं और ना ही वे अपने अर्जित ज्ञान को यथावत रखते हुए उसमें सतत कोई वृध्दि कर पा रहे हैं। आन लाइन शिक्षा के दवाब वाली राजनीति में ना केवल बच्चों का सबसे बड़ा नुकसान हो रहा हैं वरन उनके संस्कार और जीवनमूल्यों पर भी एक कठोर वज्रपात हो चुका हैं। समग्र शोध के पहलू से चिंतन करें तो अंग्रेजी मीडियम की कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों को ना तो ठीक से अंग्रेजी उच्चारित करते बनता हैं और ना ही मातृभाषा में ठीक से बोलते आता हैं। कोरोना काल की इस कच्ची -पक्की पढ़ाई के चक्कर में इन विद्यार्थियों का बहुत कुछ दांव पर लग चुका हैं। दूर रहकर आवासीय होस्टलों में रहकर पढ़ने वाले बच्चों को अब कोरोना के चलते अपने घरों में रहकर ही सबसे ज्यादा समय व्यतीत करने के कारण उनकी हर एक दिनचर्या से परिजन भी  अब अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं। परिवार के कार्यों में जवाबदेहियों से जी चुराते बच्चों के सामने बड़े बुजुर्ग माता-पिताओं को जी तोड़ रात दिन मेहनत करके घरेलू काम निपटाने पढ़ रहे हैं। किन्तु इन बातों और कार्यों से बच्चों की सोच पर कोई असर ना देख माता-पिताओं के सामने एक सबसे बड़ी दुविधा निर्मित हो चुकी हैं कि ये बच्चे जो अंग्रेजी मीडियम में पढ़कर बड़े बड़े सपने लेकर घरोए से बाहर रहकर जीवन संवारनें में जुटें हुए हैं वे अन्दर से इतने कमजोर,अशक्त, असहाय और टूटे हुए साबीत होगें यह किसी भी माता-पिताओं ने नहीं सोचा होगा। ना तो वे विशुध्द सतत मातृभाषा में वार्तालाप कर पाते हैं और ना ही अंग्रेजी में कोई प्रभावोत्पादक बातचीत कर पाते हैं! अर्थात ऐसे बच्चों को ना मातृभाषा का ज्ञान है और ना ही माता -पिता के प्रति  कोई सम्मान और ना ही संस्कारमूल्यों के प्रति कोई जवाबदेही चिंता हैं। उम्र दराज हो रहे अपने माता -पिताओं के प्रति आज की युवा पीढ़ी में मूल्यों वाली जवाबदेही बहुत दूर तक दिखाई  ना देने से परिवार,समाज और राष्ट्र के लिए एक गंभीर चिंतन का शोध विषय बनता जा रहा हैं। युवाओं के हाजीर जवाब की दुष्प्रवृति ने हमारें संस्कार मूल्यों की परिभाषा को तार-तार कर दिया हैं। जीवन भर कष्ट उठाकर तन,मन और धन से सींचे अपने पुत्रों का इस तरह विछोह या दूराभाव कहीं ना कहीं परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए एक गंभीर खतरें को संकेत दे रहा हैं। एकाकी जिंदगी की अभिलाषा और धन की चाह में विदेश में रह रहे कई बेटें- बेटियों ने मुसीबतों में माता-पिताओं की अनदेखी करके सरासर संस्कार मूल्यों और जीवन मूल्यों को आहत किया हैं। आज हर एक भारतीय समाज में जीवन मूल्यों की संरक्षण वाली परिभाषा तेजी से बदल चुकी हैं। अपवादवादी ऐसे युवा बेटें और बेटियों के कारण परिवार और समाज सामाजिक तानाबाना भी शनै शनै टूटकर बिखरने लगा हैं।समाज में गौत्रिय विवाहों को छोड़कर पर जातिय और पर धर्मीय विवाहों के चलन से माता-पिताओं के प्रति सेवाभाव की भावनाऐं भी दम तोड़ रही हैं। यह कहानी या सच्चाई केवल कोरोना काल से नहीं उपजी हैं वरन बहुत पहले से ही कई समाजों में बीजारोपित होकर अब एक बड़ा नासूर बन चुकी हैं। लाइलाज इस वैचारिक सोच के परिणाम परिवार,समाज और हर एक को प्रभावित कर रहें हैं। दो पीढ़ियों के बीच के इस वैचारिक अन्तरद्वंद के कारण परिवार,समाज की शैक्षणिक, सामाजिक और व्यावहारिक गतिविधियों पर गहरा असर पढ़ रहा हैं। डरे,सहमें और मन की पीड़ा से जख्मी बन चुकें माता-पिताओं के सामने आज अपने बेटे -बेटियों को खोने का गम सबसे गहरा आघात पहुंचा रहा हैं कि आखिर उनके द्वारा दी गई जीवनमूल्यों की सींख में ऐसी कौन सी कमी रह गई जिसके कारण उन्हें आज दूर-दूर तक अपने ही बच्चों से उन्हें कोई भी सहयोग या सहारें की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही हैं। इस हर एक परिवार पीड़ा की कहानी को आज सबने समझना होगा और चिंतन व मनन करके एक न्याय संगत हल भी ढूंढना होगा कि कहीं अपने ही लाड़लों को अपने पैर पर खड़ा करते करते कहीं उनके माता-पिताओं की उम्मीद के दीएं अपनी नैतिक, व्यक्तिगत,पारिवारिक और सामाजिक जवाबदेही की अनदेखी के शिकार होकर किसी अंधकार की गहराई में गुमराह और दिकभ्रमित ना हो जाएं। नवीन शिक्षा के नाम पर आज जिस तरह चारों तरफ ढोल पिटाo जा रहा हैं ऐसे में हर एक शिक्षाशास्त्री, समाजशास्त्री और कानूनविदों को भी ध्यान रखना होगा कि कहीं नवीन शिक्षा के अध्यायों में से जीवनमूल्यों और संस्कार मूल्यों की नैतिकवादी शिक्षा को कितना महत्व दिया गया और कितना नहीं ? केवल सरकारों की हां में  हां मिलाने से जमीनी स्तर पर समाज का नवीन विकासवादी ढांचा तैयार नहीं किया जा सकता हैं। जबतकसमाज के बुध्दिजीवि और कानूनविद परिवार,समाज के राष्ट्र के प्रति जवाबदेह नहीं बनेगें तबतक ना माता-पिता को अपने कर्तव्य पालन का उचित एहसास होगा और ना ही नई पीढ़ी को अपनी, और अपने राष्ट्र के प्रति जवाबदेही महत्ता का एहसास हो सकेगा।

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