*चांदनी और अमावस्या की रात*
चांदनी और अमावस्या की रात
(लेखिका बिना राय)
चाँद को भगवान् राम से शिकायत है कि दीपावली का त्यौहार अमावस की रात में ही क्यों मनाया जाता है और अमावस की रात में चाँद निकलता नहीं है इसीलिए दुर्भाग्यवश वह कभी भी दीपावली मना नहीं पाता है , इस पर श्री राम उस की बात से सहमत हो कर उसे वरदान दे बैठते हैं...
जब चाँद का धीरज छूट गया
वह रघुनन्दन से रूठ गया ,
बोला ...
रात को आलोकित हम ही ने करा
स्वयं शिव ने हमें अपने सिर पे धरा।
तुमने भी तो उपयोग किया हमारा है
हमारी ही चाँदनी में सिया को निहारा है ,
सीता के रूप को ,हम ही ने सँवारा है
‘चाँद के तुल्य’उनका ,मुखड़ा निखारा है ।
जिस वक़्त याद में सिया की
तुम चुपके - चुपके रोते थे ,
उस वक़्त तुम्हारे संग में बस
हम ही जागते होते थे ।
संजीवनी लाऊँगा
लखन को बचाऊँगा,
हनुमान ने तुम्हें कर तो दिया आश्वस्त
मगर अपनी चांदनी बिखरा कर,
मार्ग मैंने ही किया था प्रशस्त ।
तुमने हनुमान को गले से लगाया ।
मगर हमारा कहीं ,नाम भी न आया ।
रावण की मृत्यु से मैं भी प्रसन्न था
तुम्हारी विजय से प्रफुल्लित मेरा मन था ,
मैंने भी आकाश से था पृथ्वी पर झाँका
गगन के सितारों को करीने से टाँका ।
सभी ने तुम्हारा विजयोत्सव मनाया
सारे नगर को दुल्हन सा सजाया ,
इस अवसर पर तुमने सभी को बुलाया
बताओ मुझे फिर क्यों ,तुमने भुलाया ,
क्यों तुमने अपना विजयोत्सव
अमावस्या की रात को मनाया ?
अगर तुम अपना उत्सव किसी और दिन मानते
आधे अधूरे ही सही हम भी शामिल हो जाते,
मुझे सताते हैं , चिड़ाते हैं लोग
आज भी दिवाली अमावस में ही मनाते हैं लोग ।
तो राम ने कहा, क्यों व्यर्थ में घबराता है ?
जो ,कुछ खोता है वही तो पाता है ,
जा तुझे अब लोग न सतायेंगे
आज से सब तेरा मान ही बढाएंगे ,
जो मुझे राम कहते थे वही ,
आज से “रामचंद्र”कह कर मुझे बुलायेंगे ।
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