मप्र में सत्ता को लेकर  दांव पेंच का दौर आरंभ

मप्र में सत्ता को लेकर  दांव पेंच का दौर आरंभ



                    प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़ 


             (वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)


देश में कोरोना काल के इतिहास में मप्र और बिहार के इन राज्यों के चुनावी समीकरण ने अन्य राज्यों के लिए भी एक भावी चुनावी रणनीति के कई राजनैतिक मायनों की परिभाषा लिख दी हैं। मप्र में भाजपा और कांग्रेस का सत्ताई भविष्य मतदाताओं ने मशीनों में सुरक्षित कर दिया हैं। चुनावी प्रचार प्रसार की अमर्यादाओं ने कई बार मतदाताओं की मानसिकता को आघात पहुंचाया हैं। अब जीत का ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा।


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 देश के चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में स्पष्ट बहुमत वाली किसी एक राजनैतिक पार्टी की सरकारों का बनने का दौर अब लग लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुका हैं। कुछ राज्यों को छोड़कर आज लगभग सभी राज्यों में गठबंधन की सरकारों ने कहीं ना कहीं मतदाताओं और क्षेत्रीय ज्वलंत समस्याओं की सरासर घोर उपेक्षा की हैं। यही कारण हैं कि आज आजादी के बाद की सबसे बड़ी कांग्रेस पार्टी हासियें पर खड़ी हुई हैं। यही नहीं कई राज्यों में भाजपा को भी मुंह की खानी पड़ी हैं। ऐसे में छोटे क्षेत्रीय दलों को मतदाताओं का भरपूर जमीनी सहयोग मिलने से राजनीति में खिंचड़ी वाली सरकारें चलाई जा रही हैं। चिंतन का विषय यह हैं कि आखिर देश की बड़ी- बड़ी पार्टियों का यह हश्र क्यों और कैसे हो रहा हैं? इसका एक ही उत्तर मतदाताओं से मिलेगा कि उनके विकास की और समस्याओं की घोर उपेक्षा। साथ ही,आपसी गुटबाजी और सत्ता को लेकर जनप्रतिनिधि नेताओं की खरीद फरोख्त। मप्र में जो परिदृश्य विगत एक वर्ष में बनें हैं उससे आज कोई भी मतदाता खुश नहीं हैं। देश में कोरोना की आर्थिक और व्यापारिक मार तथा रोजगार से हटाएं गये लाखों लोगों की बेरोजगारों के रुप में बढ़ी फौज ने देश के अर्थतंत्र को और आम लोगों को हिलाकर रख दिया हैं। ऐसे में कोई भी चुनाव अब आम लोगों के लिए ना तो उत्साह का कारण बन पा रहा हैं और ना ही राजनीति की पार्टियों में कोई रूचि जमीनी कार्यकर्ताओं में देखी जा सकती हैं। मप्र हो या बिहार दोनों राज्यों के पार्टी मुखियाओं की मतदाताओं ने नींद उड़ा दी हैं। सबने बड़े बड़े हवाई दांवों की बौछार लगा दी किन्तु मतदाताओं ने वहीं निर्णय लिया हैं जो उनके क्षेत्रीय विकास के लिए सबसे बेहद जरूरी था।। मप्र में तमाम सच्ची और झूठी घोषणाओं का बैठकर सभी पार्टी के प्रत्याशी आत्म चिंतन कर रहे हैं। क्योंकि मप्र का उपचुनाव बिहार के चुनाव से एकदम विपरीत और कई मायनें में महत्वपूर्ण बन चुका हैं। क्योंकि भाजना ने कांग्रेस के विधायकों को तोड़ तोड़कर सत्ता हासील की हैं ऐसे में क्षेत्रीय स्तर पर मतदाताओं का रूख बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। मशीनों में बंद हो चुका फैसला सबको चौकानें वाला सिध्द होने वाला हैं। ऐसे में राजनीति के गलियारों में अब जीत और हार का दंगल आरंभ हो चुका हैं। उपचुनाव सीटों के मतदाताओं ने दलबदल को कितना नकारा और कितना पसंद किया हैं इसका प्रभाव देश के अन्य राज्यों की सत्तासीन सरकारों पर भी गंभीर रूप से पड़ने वाला ही हैं। महाराष्ट्र के कई बड़े नेताओं को भी मप्र का फेक्टर सताऐं जा रहा हैं। भाजपा आंदरुनी रुप से राकांपा में सेंध लगाने की कोशिश में लगी हुई हैं किन्तु अभी तक सफलता से कोसो दूर बनी हुई हैं। बिहार में नीतीश कुमार की भी हवा उड़ी हुई हैं। वे रहेगें या जाएगें यह भी मतदाताओं ने सुनिश्चित कर लिया हैं। किन्तु इन सारे राजनीति घटनाक्रमों का बारिकी से मूल्यांकन करें तो एक बात स्पष्ट हैं कि लोकतंत्र में कई बड़ी पार्टियों का जनाधार घिसरता जा रहा हैं। मप्र में यदि कमलनाथ और दिग्विजयसिंह कुछ करिश्मा करने में सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस के सूखें गले को एक राहत मिल सकती हैं। और इसका प्रभाव कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं को पुन जोड़ने और आपसी नाराजी को दूर करने में बहुत बड़ी मदद कर सकता हैं। और यदि भाजपा अपने मनसूबें में कामयाब होती हैं तो कमलनाथ पर खेला गया दांव कांग्रेस को बहुत बड़ा झटका साबीत हो सकता हैं। शिवराज और सिंधिया ने पूरे उपचुनाव में केवल और केवल सांवेर के तुलसी सिलावट को ही महत्व देकर सत्ता का ध्रुवीकरण करके अन्य सीटों को कम महत्व दिया हैं। यहीं कारण हैं कि भाजपा को जहां ज्यादा मतदान प्रतिशत की बड़ी उम्मीद थी वहां आशा से कम ही सफलता मिली हैं ऐसे में कांग्रेस और भाजपा के लिए यह उपचुनाव बहुत कुछ खोने और बहुत कुछ पाने वाला बन चुका हैं। उपचुनाव के परिणाम चाहेए जो हो किन्तु राज्य के मतदाताओं का सबसे बड़ा नुकसान जरूर हुआ हैं। बार बार चुनाव और दलबदल ने मतदाताओं की वैचारिकता और मानसिकता को गहरा आघात पहुंचाया हैं । चुनावी दांवों में कोरोना वैक्सीन का कोई सरोकारिक संबंध नहीं था। यह पहलु तो राष्ट्र के आम नागरिकों के स्वास्थ्य हितों से गंभीरता से जुड़ा हुआ हैं। क्या कोरोना वैक्सीन उन्हीं लोगों को मिलेगी जहां कि सीटों पर चुनाव अभी हुए हैं या होने वाले हैं? शायद नेतागण भी यह भूल गए है कि कोरोना एक महावैश्विक महामारी हैं ना कि चुनाव सीटों के लोगों से जुड़ी समस्या हैं! यह सच हैं कि सत्ता हासील करने के पीछे लोकतंत्र में दावें से जुड़े बोलवचनों के कारण पार्टियों का आत्मविश्वास कमजोर पड़ चुका हैं। देश को पूरी ताकत से खड़ा करने के मुद्दों को छोड़कर हास्यविनोद वाले बोलवचनों ने मतदाताओं की आशाओं को निराश किया हैं। मप्र और बिहार के चुनावी परिणामों से आगामी समय में राज्यों में होने वाले चुनावों पर गहरा प्रभाव डालने वाले हैं। पश्चिम बंगाल में बंगाल का जादू चलेगा या अन्य पार्टियों की तोड़जोड़ वाली नवीन रूप ले चुकी राजनीति चलेगी। अब इस और पूरे देश की तमाम राजनीति पार्टियों की नजर लगी हुई हैं। यदि भाजपा को मप्र में उपचुनाव में भारी सफलता मिलती हैं तो भाजपा का अंतर कलह और सिधियां गुट भी अपना रंग दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाला हैं। यदि दलबदल करके आए उपचुनाव में किसी कारण से मतदाताओं की सोच के शिकार होते हैं तो उनकी राजनीति को भी अज्ञातवास का ग्रहण भी लग सकता हैं। तब सिंधिया, शिवराजसिंह, नरोत्तम मिश्रा,कैलाश विजयवर्गीय और उमा भारती के अपने -अपने राजनीति के आकांओं से जुड़े प्रभावी फेक्टर हलचल पैदा करके राज्य में एक नये राजनीति समीकरणों को भी जन्म दे सकते हैं।


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