कृषि बिल मुद्दों पर किसानों- जवानों में टकराव व सरकारें परेशान

कृषि बिल मुद्दों पर किसानों- जवानों में टकराव व सरकारें परेशान 


                    प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़ 

             (वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)

दुनिया के किसी भी मुल्क में जय जवान और जय किसान को इतना महत्व नहीं दिया जाता हैं जितना भारत के लोकतंत्र में किताबों से लेकर  जमीनी स्तर पर हर एक जुबानों पर इनका यशोगान आत्मिक सम्मान से किया जाता हैं। कृषिगत बिल से जुड़े  मुद्दों पर  आज देश का किसान और देश का जवान कड़ाके की ठंड में सड़कों पर बने आशियानों में आमने -सामने आ खड़ा हुआ हैं। वहीं केन्द्र और राज्य की सरकारें बैठकों में उलझी केवल नई नई बातों को लेकर फाईलें दौड़ा रही हैं। 

जय जवान! जय किसान! जय विज्ञान ! की बड़ी -बड़ी बातें करने वाली केन्द्र और राज्य की सरकारों का  वैचारिक और राजनैतिक टकराव किसानों और जवानों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन चुका हैं। जवान इसे अपनी दायित्विक मजबूरी कह रहा हैं तो किसान इसे अपना हक और अधिकार बता रहें हैं किन्तु तीसरा पक्ष   सरकार और सत्ता का हैं जो निर्णय करने में विलंबित हो रहा हैं वहीं  न्यायालय ने हाल फिलहाल मौन धारण कर रखा हैं। दिल्ली का दर्द यह हैं कि सीएम केजरीवाल की मुसीबत चारों से बढ़ चुकी हैं। दिल्ली में कोरोना पहले ही रिकार्ड तोड़ आंकड़ें दर्ज करवा चुका हैं। ऐसे में देश के किसान के दिल्ली सीमा पर डेरा डालने के कारण दिल्लीवासियों की नींद हराम कर दी हैं। चक्काजाम,आवश्यक वस्तुओं के ना पहुंचनें से रोजमर्रा की चीजों की कीमतें तेजी से बढ़ी हुई हैं। केजरीवाल ना भाजपा के बिल के खिलाफ बोल पा रहे हैं और ना ही अरमंदरसिंह की दोगली नीति। के विरूध्द कुछ आक्रामक नजर आ रहे हैं। कनाड़ा के उच्चायुक्त को तलब करके सिक्कों को फंडिग पर केन्द्र ने कल कड़ी फटकार लगाई हैं। खालिस्तान की उठी मांग ने पृथक पंजाब के सोये हुए भिंडरावाले के दफन जिन्न को जिंदा कर दिया हैं। भारत में आंदोलन किसानों का और अन्य देशों में मौकापरस्त लोग  नारे लगा रहे खालिस्तान के। दुनिया जानती हैं कि केन्द्र सरकार स्पष्ट बहुमत हैं। जब काश्मीर की परिभाषा बदली जा सकती हैं तो किसानों के दर्द को भी सरकार बेहत्तर रूप से हल कर सकती हैं। किसानों की नाराजी भाजपा को अन्य कई राज्यों में जहां अभी चुनाव होने हैं वहां बहुत भारी पड़ सकती हैं। तमिलनाडू और पश्चिम बंगाल के गढ़ अभी फतेह करना बाकि हैं। किसान नेता भी सरकार से शांति से हल चाहते हैं किन्तु कुछ राजनीति पार्टियों के दावंपेंच और।लालच में फंस चुके युनियन लीडर अपने को देश के किसानों का भाग्यविधाता समझ बैठे हैं। आरजेडी  बिहार में हार से बौखलाई हुई हैं।स्थानीय जनता का हमदर्द बनने के बजाय तेजस्वी यादव की फड़काऊ टीम किसानों को भड़काने में लगी हुई हैं। ममता बनर्जी ने स्वयं अपना राजनीति भविष्य का मूल्यांकन कर लिया हैं। अपने अवसान समय में अब दीदी को किसान याद आ रहे हैं। जब उनके ही राज्यों के किसानों की मददगार नहीं बन सकी तो देश के किसानों को हाथ जोड़ने दिल्ली सीमा पर सड़क की ओर निकल चुकी हैं। ऐसे कई मौकापरस्त पर छिपे हुए देशद्रोही लोग हैं जो अपने ही देश के अन्नदाता को दिलासा दिलाने के बजाय उन्हें भड़कानें का काम कर रहे हैं और टुकड़े -टुकड़े गैंग के माध्यम से  देश को कमजोर करने की जुगत में लगे हुए हैं। जय जवान -जय किसान के बीज आपसी वैचारिक वैमनस्यता के बीज बोने वाले कई नेताओं को ना किसानों से कुछ लेना देना हैं और ना ही देश के जवानों के प्रति कोई हमदर्दी हैं और ना ही सम्मान हैं। केवल और केवल अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने वाले किसानों को कड़ाके की ठंड में दिल्ली सीमाओं पर रोक कर भड़काऊ भाषणों से गुमराह कर रहे हैं। एक सशक्त और देश हितैषी विपक्ष राज्यों या केन्द्र में सरकार को उचित मार्गदर्शन करें ना कि आंदोलनों से देश की जनता को परेशान करें। सब कुछ खोने की कगार पर पहुंच चुकी कांग्रेस से ना संगठन संभल रहा हैं,ना राज्य की सरकारें संभल पा रही हैं और ना ही नेता ओर जमेन से जुड़े कार्यकर्ता। ऐसे में बिखर चुकी कई बड़ी पार्टियों को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। आज कुछ दो हिस्सों में बंटा किसान आंदोलन कई पार्टियों की भेंट चढ़ चुका हैं। सत्य तो यह हैं कि जब आंदोलन खत्म होगा तब ना किसान नेता नजर आएगें और ना ही राजनीति के बड़बोले हमदर्दी दिखाने वाले  नेतागण ही दिखाई देगें। केजरीवाल के धैर्य की भी दाद देना होगी। एक मंजे हुए खिलाड़ी बनकर कई राज्यों के सीएम नेताओं ने बहुत कुछ केजरीवील से जरूर सींखना चाहिए। इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य इस देश के चंद नेतागण हैं जो अपने स्वार्थों के कारण किसान  जनता, मजदूर, गरीबों,संगठनों और नौकरी पेशा लोगों को भड़काकर अपनी रोटी सेंकते में अपनी शान समझतें हैं। यह जानते हुए भी कि संविधान में  कुछ  विषयों पर कानून बनाने  और लागु करने के लिए तीन तरह के विषयों की अनुमोदन पहले से ही उल्लेखित हैं संघ सूची,राज्य सूची और समवर्ती सूचियां हैं। कृषि विषय पर राज्य अपने स्तर पर किसानों की सुविधा के लिए कानून बना सकती हैं। फिर भी केन्द्र से टकराकर किसानों को बेवजह गुमराह कर रही हैं। भारत विरोधी ताकतें पाक जैसे देश और टुकड़े टुकड़े गैंग अपना राजनैतिक भविष्य बचाने के लिए ऐसे आंदोलन के पीछे से खेल खेलती हैं। भाजपा की केन्द्र सरकार ने भी कृषि बिल कानून बनाने के पहले अपने सत्ता शासित राज्यों में किसानों के लिए ऐसे बिल बनवाकर किसानों में जनजागृति पैदा करना चाहिए था ना कि एकाएक कोई जल्दबाजी करना चाहिए था।मोदी सरकार को भी समझना होगा कि बैठकों से यदि ठोस हल निकलता हैं तो जल्दी निकालें ना कि चीन की तरह  बैठकों का दौर चलाएं। ऐसे में मौकापरस्त लोग किसानों को रोज बर्रगला कर देश की एकता और अंखडता को कमजोर करके दूसरें स्वदेशी नेता और विदेशी दुश्मन फायदा उठाने में जुटें रहेगें। किसान अपने ही भाई हैं और देश के अन्नपूर्णादाता हैं। इनका ना अपमान उचित हैं और ना ही इनकी परेशानियों की अनदेखी ही कानून उचित हैं। केन्द्र हर रूप में सक्षम हैं। सरकारें आएगी और  जाएगी किन्तु किसान तो किसान बना रहेगा। उसके हितों से टकराव कदापि उचित नहीं हैं। आज किसानों को सीमाओं में घुसनें से रोकने के लिए हजारों हजारों  जवानों को किसानों से दो दो हाथ करना पड़ रहे हैं। क्या यह न्याय संगत हैं कि एक उत्पादक और एक रक्षक आपस में दुश्मन की तरह लड़े और आपस में व्यवहार करें? केन्द्र और राज्य सरकारों ने गंभीरता से सोचना होगा और त्वरित ही बैठक करके हल निकालना होगा। तभी हम नई पीढ़ी को सही मायने में छाती ठोककर कह सकेगें कि जय जवान!  जय किसान!!  जय विज्ञान !!!. कयोंकि। किसी भी खुशहाल देश के लिए ये तीनों बहुत ही जरूरी हैं ना कि नेताओं की दलबदलू पार्टियां।

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