पुरूषों की सुनवाई के लिए पुरुष आयोग क्यों नही - डॉ.निरुपमा उपाध्याय

 बेटा पढ़ाओ-संस्कार सिखाओ अभियान 



 पुरूषों की सुनवाई के लिए पुरुष आयोग क्यों नही -  डॉ.निरुपमा उपाध्याय


क्या हमेशा पुरूष ही दोषी होता है? क्या आज बेटियों की स्वेच्छा चारिता, माता-पिता का अन्धा प्रेम, बेटियों को उच्छंखल बनाने में सहायक नहीं है?

लक्ष्मणगढ़ - (सीकर) । बेटा पढ़ाओ-संस्कार सिखाओ अभियान की ओर से कवयित्री डॉ. निरुपमा उपाध्याय ने कहा कि आज एक ऐसे विषय पर चर्चा करने का मन है, जिस पर कभी भी समाज का या प्रशासन का  ध्यान ही नहीं गया। जहाँ भी देखो नारी उत्पीड़न की चर्चा होती है ।महिला आयोग का गठन हुआ है। आज कोई भी महिला अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा सकती है और उसकी शिकायत पर तुरत कार्यवाही भी होती है। हम सब इस व्यवस्था का सम्मान भी करते हैं और करना भी चाहिये, लेकिन जो व्यवस्था स्त्री को सुरक्षा प्रदान करती है, उसको न्याय देती है, गुनहगारों को सलाखों के पीछे ले जाती है, उस व्यवस्था का कुछ लोग दुरुपयोग भी करते हैं। आप यदि अपने चारों तरफ़ नजर घुमायेंगे तो 10 में से 3 लोग तो अवश्य ऐसे निकलेंगे जो निरपराध होते हुए भी सजा पा रहे हैं, कोर्ट के चक्कर लगाते-लगाते थक चुके हैं, उनके लिये जीवन एक अभिशाप बन चुका है।निराशा की इस स्थिति में कई बार तो ऐसे लोग गलत कदम उठाने को भी मजबूर हो जाते हैं, उनको कोई रास्ता ही नहीं दिखायी देता।

            क्या हमेशा पुरूष ही दोषी होता है? क्या आज बेटियों की स्वेच्छा चारिता, माता-पिता का अन्धा प्रेम, बेटियों को उच्छंखल बनाने में सहायक नहीं है? क्या परिवार की जिम्मेदारी नहीं है कि बेटियों को अच्छे संस्कार दिए जायें, उनको अहसास कराया जाये कि किस प्रकार दो परिवारों में संतुलन बनाये रखना आवश्यक है। एक बेटी लक्ष्मी के रुप में ससुराल में पदार्पण करती है, बहुत बड़ा उत्तर दायित्व उसे निभाना होता है। विवाह का बन्धन हमारी संस्कृति में अत्यन्त पवित्र और वन्दनीय रिश्ता है। दो अजनवी एकरूप, एकाकार होकर हम बन जाते हैं। अग्नि के सात फेरे सात जन्मों तक साथ निभाने का वचन है,बसारे रिश्ते इस बन्धन के सामने फीके हैं, लेकिन क्या यह बात आजकी युवा पीढ़ी को समझाने के लिये घर में, समाज में, विद्यालय में या कानून में कोई व्यवस्था है?

             संस्कार-बेटा हो या बेटी दोनों के लिए अति आवश्यक हैं।समाज की गाड़ी के स्त्री-पुरूष दो पहिये हैं। दोनों को साथ चलने के लिये बराबर कदम बढ़ाना होता है। एक भी चक्र का संतुलन बिगड़ते ही पूरा परिवार बिखर जाता है। मेरा मानना है कि समाज और न्यायपालिका-दोनों को नीर-क्षीर विवेक से हर पीड़ित का पक्ष सुनना चाहिये, सत्य को खोजना चाहिए, उचित न्याय देने का प्रयास करना चाहिये। कितने ही परिवार हैं जो विवाह के पश्चात बहुओं के अत्याचार, उनकी उच्छ्रंखलता, गलत आचार-विचार से पीड़ित हैं। ऐसे परिवार न्याय के लिए-सभी साक्ष्यों के साथ दर-बदर की ठोकरें खा रहे हैं, कोई उनकी पीड़ा को सुनने वाला नहीं है, क्योंकि महिला आयोग तो है, लेकिन अभी तक कोई पुरूष आयोग का गठन नहीं किया गया, जो कि आज के समय में अति आवश्यक है और भविष्य में अत्यंत उपयोगी साबित होगा। जहाँ बेचारे पुरुषों की भी कोई सुनने वाला होगा, वह भी अपनी पीड़ा बताकर न्याय की आस लगा सकेंगे, इसके विपरीत ऐसे लोगों की उपेक्षा समाज में विकृति उत्पन्न करेगी, मानसिक तनाव में ऐसे युवा अपना जीवन बर्बाद होता देख, गलत निर्णय लेने को मजबूर हो जायेगे। हमारी व्यवस्था ही इसकी जिम्मेदार होगी। हमारी सरकार को कोई ठोस कदम उठाना होगा, कानून में परिवर्तन करना होगा, स्त्री-पुरूष सभी को उचित न्याय देना होगा।

             अपने आसपास ही कितने ही परिवार के युवा मैंने न्याय की आस में भटकते देखें हैं, माता-पिता के झगड़े में बर्बाद होते बच्चे देखे हैं, उनकी पीड़ा देख कर ही अहसास हुआ कि मर्द को भी दर्द होता है। प्रशासन को इस बात को समझना होगा, पुरुषों की अवहेलना सामाजिक व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होगी। बेटा पढ़ाओ-संस्कार सिखाओ अभियान समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने का एक छोटा सा प्रयास है। किसी पीड़ित की व्यथा को आप तक पहुंचाने का एक माध्यम है।समाज का दर्पण है साथ ही प्रशासन से सहयोग की अपील भी करता है। यह हम सबके बीच के ही ना जाने कितने पीड़ित युवा के दर्द की कहानी है जो अपने पत्नी के बुरे आचरण व शादी के बाद भी अवैध सम्बन्धो, नाजायज रिश्तों से पीड़ित है। ऐसे ना जाने कितने युवा सभी साक्ष्यों के साथ प्रशासन से गुहार लगाकर इंसाफ चाहते हैं पर बड़े दुःख की बात है कि इन युवाओं की सुनने वाला कोई नही। आशा है आप सब ऐसे युवाओं को न्याय दिलाने के लिये दिल से उनका साथ देंगे और प्रयास करेंगे कि आपकी बेटी किसी के घर की खुशियाँ बर्बाद करने का माध्यम कदापि न बनें।

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